Monday, 5 August 2013

सहज समाधि … जिसके आगे कुछ नहीं है ..... 


--- समर्थ गुरु परम संत डॉ चतुर्भुज सहाय जी 

सहज शब्द के अर्थ सरल या आसान के हैं। जिस काम में कोई कठिनाई न हो उसको 'सहज' कहते हैं। सहज - दो शब्दों से मिल के बना है - 'सह' और 'ज' । 'सह' - के अर्थ संग व  साथ होते हैं और 'ज' के अर्थ - जन्म के हैं। जो चीज़ जन्म से  साथ आवे, जो हमारे स्वभाव में हो, वह 'सहज' कहलाती है। किसी काम के करते करते, चाहे वह अच्छा काम हो या बुरा, मनुष्य अपना स्वभाव बनाता है। ऐसा स्वभाव जन्मान्तर से संग आता है और इस जीवन में भी बनाया जाता है। स्वभाव के बनाने और बिगाड़ने का अधिकार भी मनुष्य को है। समाधि की अवस्था में प्रवेश होने के लिए आरम्भ में थोड़ा मन को कसना पड़ता है , उसे बाहर से रोक के, अंतर में ले जाना होता है, आगे अभ्यास करते करते वही स्वभाव हो जाता है और बड़ी सरलता से उसकी समाधि  चलने लगती है। अनुभवी गुरु यदि भाग्य से मिल जाये तब तो और भी आसानी हो जाती है और थोड़े यत्न करने पर ही यह अवस्थाएं प्राप्त हो रहती हैं।  गुरु के बताये हुए मार्ग पर चलने और 'उद्योग' करने को ही 'अभ्यास' कहते हैं। जैसा कि योग सूत्र लिखता है -- 
तत्र स्थितौ यत्नोभ्यास: 
वृत्तियों को रोकने की चेष्टा करना, अथवा चित्त की तरंगों को रोक के उसे शांत करने का यत्न करना ही 'अभ्यास' कहलाता है।  इसी अभ्यास से आगे चलके ऐसा स्वभाव बन जाता है कि व्यव्हार करते हुए, सारे  संसारी काम-काजों में जुटे हुए भी मन, रूप रस पीता रहता है, उस अपूर्व आनंद में डुबकी लगाता रहता है,
इसी का नाम 'सहज-समाधि'  है। श्री कबीर साहब ने अपने एक पद में इसका नक्शा इस तरह खींचा है --
 पद 
संतो सहज समाधि भली। 
गुरु परताप भयो जा दिन से, सूरत न अनत चली। 
आंख न मूंदु , कान न रुंदु , काया कष्ट न धारूँ। 
खुले नैन मैं हंस हंस देखूं , सुन्दर रूप निहारूँ। 
शब्द निरंतर मनुआ राता , मलिन वासना त्यागी। 
उठत बैठत कबहूँ न बिसरे , ऐसी ताड़ी  लागी। 
कहैं 'कबीर' यह उन्मनी रहनी, सो परगट कर गाई। 
दुःख सुख से एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई। 

अर्थ -- हे संतो।  सबसे अच्छी और सबसे ऊँची सहज समाधि  है। जिस दिन से गुरु का दया पात्र मैं बना हूँ उस दिन से मन की वृत्ति कहीं दूसरी जगह गयी ही नहीं है। मैं न तो आंख बंद करता हूँ न कानों में ऊँगली ठूंसता हूँ न तपस्वियों की तरह शरीर को कष्ट देता हूँ। दोनों नेत्र खुले हैं, चित्त प्रसन्न है और प्रभु का मनोहर रूप खड़ा अपनी छटा दिखा रहा है।  

दिन रात हर घड़ी ह्रदय की जिह्वा पर प्यारे का नाम उच्चारण हो रहा है, मन अपनी सारी मलिन इच्छाओं को त्याग के उसी में मस्त हो रहा है।  यह एक ऐसी समाधि लगी है कि  उठते बैठते और काम काज करने पर भी भंग नहीं होती। कबीर साहब कहते हैं कि संसार में रहते हुए संसार से अलग थलग रहने का जो भेद है सो हमने तुम्हे प्रकट कर के बता दिया।  इस मायावी द्वन्द सुख दुःख इत्यादि के परे एक स्थान है, जहाँ पर परम सुख है, परम आनंद है, हम वहीँ के वासी बन गए हैं, वहां से चित्त हटता ही नहीं है।  यह है सहज समाधि, सहज योग अथवा चैतन्य समाधि  व समयोग। 

यह सम्पूर्ण जगत पुरुष और प्रकृति का खेल है , माया और ब्रह्म के ग्रंथि से यह सारी सृष्टि रची गयी है।  पुरुष चैतन्य है और प्रकृति जड़ है।  पुरुष सत और सदा एक रस रहने वाला है।   माया व् प्रकृति असत, और क्षण क्षण में बदलने वाली है।  पुरुष में प्रकाश, ज्ञान और आनंद है और प्रकृति में अज्ञान, अंधकार और अशांति है।  प्रकृति नीचे को खींचती है और पुरुष उसको ऊपर उठाता है।  जीव इन दोनों के बीच में लटका  हुआ है , वह कभी प्रकृति की ओर अधिक आ जाता है और कभी चैतन्य पुरुष की ओर बढ़ के प्रकृति को भूल बैठता है। भगवान  कृष्ण के कथनानुसार यह दोनों ही अवस्था समाधि की नहीं है।  संसार में अधिक लिप्त हो जाना भी समाधि नहीं है और  परमार्थ में अधिक प्रवेश होके संसारी सारे कामों की ओर से लापरवाह हो जाना और उनको बिगाड़ देना भी समाधि  नहीं है क्योंकि इसमें समता नहीं रहती।  कई महापुरुष आत्म्देश की ओर  इतने बढ़ जाते हैं कि उनको शरीर से बाहर के जगत का ज्ञान नहीं रहता।  ऐसे संत दुनियादारों से  बहुत उच्च कोटि के माने जा सकते हैं, पर उनको समाधिस्थ नहीं कहा जा सकता। महत्व का पद अभी इनसे दूर है, यह एक ऐसी बीच की अवस्था से गुजर रहे हैं जो आगे चलके जल्दी ही पूर्ण बन सकेंगे। जो लोग , लोक और परलोक की इच्छाओं में फंसे हुए क्लेश भोग रहे हैं, और अशांति के मैदान में इधर से उधर चक्कर काट रहे हैं, उनसे ऐसे योगिराज जो अपने को भूल के केवल आत्मानंद का रसपान कर रहे हैं, बहुत ऊँचे उठ चुके हैं, पर वह जिस स्थान पर पहुँच के असली जीवन मिलता है, उससे कुछ नीचे हैं , समय आयेगा जब वह पूर्ण बन सकेंगे और असली मानवी ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य बन सकेंगे।  मनुष्य कहलाने वाला प्राणी जब तक संसार में लिप्त है और अपने असली रूप (आत्मा) को भूला रहता है, वह 'पशु' संज्ञा में गिना जाता है और जब आत्मा से सम्बन्ध जोड़ अपने अन्दर दैवी गुणों को भरने लगता है तब उसकी 'देव' संज्ञा हो जाती है।  यह दोनों हो मनुष्य संज्ञा नहीं है, इनसे आगे जब वह ईश्वरीय गुण धारण करता है तब उसको "मनुष्य" कहते हैं , ऐसा शास्त्रों का मत है। 

इश्वर सब कुछ करता है, उसके सारे काम नियमानुसार ठीक ठीक चलते हैं।  वह जगत की ओर भी देखता है और अपनी ओर  भी देखता है।  वह संसार के छोटे से छोटे पदार्थ का भी ज्ञान रखता है और अपने रूप व  अपनी शक्तियों का भी ज्ञान रखता है।  वह एक ओर सृष्टि के कण कण में व्याप्त हो लीला कर रहा है और दूसरी ओर सबसे अलग थलग हो द्रष्टा बना हुआ है, इत्यादि ।  ऐसा बेखबरी में बाखबरी  और  बाखबरी  में बेखबरी, कर्ता रहते हुए भी अकर्ता और अकर्ता में कर्ता, ज्ञानी होते हुए अज्ञानी और अज्ञानी रहते हुए ज्ञानी की अवस्था  जिस संत को प्राप्त है, जो दुनिया में अपने को रखता हुआ, दुनिया के सारे व्यव्हार करता हुआ भी दुनिया से अपने को अलग देखता है, जिसके इधर के काम भी पूर्ण रीति से होते चले जाते हैं और इधर भी अपनी बैठक बनाये हुए है, ऐसा परम पुरुष योगिराज, पूर्ण संत और समाधिस्थ बोला  जाता है।  पहले अवस्था को लाने के लिए कुछ उद्योग करना पड़ता है पीछे वह स्वभाविक हो जाती है और बिना प्रयास के सहज ही में चला करती है इसी को 'सहज योग' कहते हैं।  गीता ने इसी को 'समयोग' माना है। हमने इसको चैतन्य समाधि  का नाम दिया है।  

बिना इस अवस्था के आए हुए नाम और रूप में फंसे हुए ब्रह्म के दर्शन तो हो सकते हैं पर क्षर और अक्षर से  परे जो कूटस्थ है, जो नाम व  रूप की उपाधि से अलग है , जो सबका आदि और अंत है उसका साक्षात्कार नहीं हो सकता।  उसके असली भेद इसी स्थान पर जाकर खुलते हैं।  ऐसा मनुष्य ज्ञान में अज्ञान और अज्ञान में ज्ञान को फंसा हुआ देख के चकित रह जाता है, उसकी ज्ञान शक्ति फेल हो जाती है और पूछने पर कहने लगता है कि -- मैंने सभी कुछ जान लिया है और वह इतना है कि कुछ नहीं जाना। यह असली 'परमपद' है , यही कैवल्य पद है, यही 'निर्वाण' है जो विरलों के भाग्य में आता है, इसके आगे कुछ नहीं है।   

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