Tuesday, 6 March 2012

रामाश्रम सत्संग मथुरा – एक संक्षिप्त परिचय -- नए लोगों के लिए

रामाश्रम सत्संग मथुरा एक संक्षिप्त परिचय

इस अध्यात्म ज्ञान की पतित पावनी ईश्वरीय धारा को बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में सन 1904-05 के लगभग परम संत महात्मा श्री रामचन्द्रजी महाराज (दादा गुरु महाराज) ने फतेहगढ़, उत्तर प्रदेश में बहाया । इस धारा के प्रवाह को उनके मुख्य शिष्य परमसंत डॉ चतुर्भुज सहाय जी (हमारे गुरु महाराज) ने उनके आदेश एवं आशीर्वाद से आगे बढ़ाया । ये धारा शुरुआत में एटा, उत्तर प्रदेश, जहाँ गुरु महाराज 1951 तक रहे, वहां से बहती रही 1 अक्टूबर 1951 में गुरु महाराज मथुरा, उत्तर प्रदेश आ गए । तबसे इस पतित पावनी सत्संग धारा का नाम रामाश्रम सत्संग, मथुरा पड़ गया । उन्होंने इसका नाम अपने श्री गुरु महाराज के नाम पर रखा ।

रामाश्रम सत्संग, मथुरा का उद्देश्य मनुष्य का अध्यात्मिक उत्थान है । इसी से सभ्यता का समग्र विकास संभव है । यह एक ऐसी संस्था है जिसे संस्था कम और परिवार कहना ज्यादा उचित लगता है । धर्म, भाषा, रंग-रूप, जाति, संप्रदाय, राष्ट्र, धार्मिक मान्यताएं इत्यादि इसमें कोई बाधा नहीं है ।

ध्यान की एक नवीन पद्धति के द्वारा, यह मनुष्यों को अज्ञान, दुःख एवं मृत्यु के समुद्र से उठाकर पूर्ण ज्ञान, शाश्वत आनन्द, शाश्वत शांति एवं अक्षय जीवन की ऊंचाइयों तक पहुंचाती है । इसे 16 वर्ष से कम आयु वालों को नहीं  सिखाया जाता । यहाँ मनुष्य को किसी नियम, कानून के बंधन में नहीं डाला जाता है । जैसे जिंदगी चल रही है, वैसे ही चलती रहे, बस सुबह शाम 15-20 मिनट इस ध्यान को कर लें । इस ध्यान की क्रिया को गुरु या किसी आचार्य के पास जाकर सीख लें अथवा नजदीक के किसी भंडारा में पहुँच जाएँ जहाँ हर बैठक में ये क्रिया मंच से गुरुजन बताकर ध्यान कराते हैं । इस सत्संग में किसी से कुछ भी नहीं माँगा जाता है । गुरु महाराज ने यही कहा कि तुम मुझे दक्षिणा में 15-20 मिनट का वक्त सुबह शाम दे दो, बस और कुछ नहीं चाहिए ।

रामाश्रम सत्संग, मथुरा की साधना शैली
रामाश्रम सत्संग की शैली अत्यंत ही सहज एवं सुगम है जिसमे न तो घर बार छोड़ने कि आवश्यकता है न अपने कारोबार त्यागने कि जरुरत है निर्बल और सबल, वृद्ध और युवा, स्त्री और पुरुष, विद्वान और कुपढ, गृहस्थ और विरक्त, उंच और नीच जाति -- सभी इसको बड़ी  आसानी से कर सकते हैं । धर्म और मजहब भी इसमें बाधा नहीं डालती क्योंकि जहाँ मजहब की सीमा समाप्त होती है वहां से आगे इसका आरंभ होता है । साकार उपासक, निराकार उपासक, द्वैतवादी, अद्वैतवादी, आत्मवादी (जैन, बौद्ध) और ईश्वरवादी, वैष्णव और आर्य समाजी, शिव उपासक और शक्ति उपासक, कृष्ण उपासक व राम उपासक, मुसलमान और ईसाई इत्यादि, सबके लिए एक जैसा स्थान है । सभी अपने अपने धर्मों के अनुसार अपना अपना काम करते रहें और उसी के साथ साथ थोड़ी  देर इस अभ्यास को भी करते जाएँ और देखें कि उसी से उनके भजन में अभ्यास करने के दो-चार दिन बाद ही कितना रस उनको मिलता है, कितने आनंद का अनुभव होता है । यह सब मन की एकाग्रता का तमाशा है जो प्रथम दिवस से ही साधक को आने लगती है । जिस मन को वश में लाने के लिए, जिस मन को एक ही लक्ष्य पर साधने के लिए वर्षों परिश्रम करने पर भी सफलता नहीं मिलती, उसकी झलक पहले ही दिन से यहाँ मिलने लगती है और आगे अभ्यास से वह दिन प्रतिदिन बढती जाती है और आगे समाधि में परिवर्तित हो जाती है, दर्शन करा देती है ।

अभ्यास के लिए पन्द्रह या बीस मिनट सुबह व शाम देने से वह सारी अवस्थाएं साधक बड़ी जल्दी प्राप्त कर लेता है जो कठिन तप व कठिन परिश्रम करने वालों को वर्षों में भी नहीं मिल पाती । गृहस्थी भोगता हुआ भी मनुष्य उन पर चल के अतिशीघ्र दर्शन का अधिकारी अपने को बना लेता है, आत्म देश तक पहुँच साक्षात्कार कर लेता है । यह प्रवृत्ति  में निवृत्ति एवं निवृत्ति में प्रवृत्ति का मार्ग है ।

इसमें न आसन है, न प्राणायाम है, न जप है और न तप है, न शब्द योग है न राजयोग है और न हठयोग है । भक्ति मार्गी भी इस पर चल सकता है, योगी व ज्ञानी भी इसको अपना सकता है । इसमें किसी के विश्वास को धक्का नहीं पहुँचाया जाता, उसमे ही उसे आगे बढ़ा दिया जाता है ।

देश काल और परिस्थिति को देखते हुए परम पूज्य दादा गुरु महाराज (श्री महात्मा रामचन्द्रजी) ने इस युग के लिए योग की उन पुरानी रीतियों में से तरमीम करके उन्हें अत्यंत सरल बनाके लाभ देख के और सैकड़ों आदमियों पर अपने इस नवीन मार्ग का अनुभव करके इसको प्रचलित किया । यह नवीन शैली कर्म, भक्ति और ज्ञान की एक मिलौनी है ।

यह सभी कहते चले आ रहे हैं कि इश्वर का निवास मनुष्य के हृदय में है वह बाहर भी है परन्तु यह समष्टि इश्वर इतना बड़ा है कि मनुष्य की पकड़ में नहीं आ सकता   इसलिए शास्त्रों ने यह शिक्षा दी है कि उसे अपने अंदर ही खोजो जो तुम्हारे अत्यंत समीप और छोटी शक्ल में है, उसे ही पकड़ने की कोशिश करो बात ठीक है हम जब ऐसा करने को तैयार होते हैं तो पहली मुठभेर हमारी मन से होती है इस मन रूपी भौंरे की आदत कुछ ऐसी बन गयी है कि वह अपने घर में बैठना ही नहीं पसंद करता, सदैव बाहर को भागता है और विषय वासना रूपी कलियों का रस लेने को हर समय लालायित रहता है इसके स्वभाव में  चंचलता इतनी आ गयी है की क्षण मात्र को भी एक स्थान पर नहीं टिकता अभी एक फूल पर बैठा दिखाई दे रहा था, उसे छोड़ झट दूसरे पर जा पहुंचा, फिर तीसरे को पकड़ा, इत्यादि इसके इस चंचल और बहिर्मुखी स्वभाव को छुड़ाना और उसे अंतर्मुखी बनाना यह इस योग का पहला काम होता है

बस इतने ही काम के लिए मनुष्य न जाने क्या-क्या काम करता है परिवार को त्याग पर्वतों की गुफाओं में जाकर रहता है, कठिन-कठिन तप करता है, उपवास करके शरीर को सुखाता है, आसन और प्राणायाम में परिश्रम करता है इत्यादि पर यह हाथ नहीं आता इस पर अधिकार नहीं हो पाता

यह काम हमारे यहाँ इतनी सुगमता से हो जाता है कि जिसको सुनकर लोगों को आश्चर्य हो सकता है प्रथम बैठक से ही साधक यह अनुभव करने लगता है कि उसका मन किसी शक्ति द्वारा जकड़ दिया गया  है उसका वेग और उसकी चंचलता नष्ट हो गयी है और वह अपने कार्य में कोई विघ्न नहीं डाल रहा नित्य-प्रति के अभ्यास से यह अवस्था और बढती जाती है और थोड़े ही काल में वह समाधि का आनंद लूटने लगता है

इस साधन के लिए जिज्ञासु को दो एक बेर गुरु या शिक्षक के सम्मुख बैठ के अपनी क्रिया करनी होती है गुरु अपनी आत्म शक्ति शिष्य में प्रवेश करता है और अपने उसी आत्मबल से शिष्य को सहायता पहुंचा के उसके चंचल मन को स्थिर कर देता है आगे इसी बताई हुई क्रिया द्वारा शिष्य स्वयं अभ्यास करता रहता है और बढ़ता रहता है जब कभी फिर उसकी चंचलता बढ़ जाती है और साधक के काबू से बाहर हो जाती है तो गुरु फिर सहायता पहुंचा देता है इस दूसरी बेर यह भी जरुरी नहीं है कि साधक को गुरु के सम्मुख ही पहुंचना पड़े वह कितनी ही दूर क्यों न हो, वहीं गुरु-शक्ति पहुँच कर उसी क्षण उसे सहायता देती है और शांति का अनुभव कराती है यह एक विशेषता हमारे यहाँ की शैली में है इसका प्रसाद हम लोगों को अपने श्री गुरुदेव से मिला है दूसरी जगह यह सुगमता और यह ऐसी सहायता की झलक भी देखने को नहीं मिलती

शिक्षित समाज को गुरु और शिष्य शब्द से घृणा हो रही थी इसका कारण गुरुओं की धन लोलुपता और शिष्यों से सेवा लेना था गुरु लोग शिष्यों को अपना गुलाम समझने लगे थे और हर तरह की खिदमत लेने में संकोच नहीं करते थे दीक्षा देते समय ही कुछ न कुछ संपत्ति उनकी समेट ही लेते थे श्री दादा गुरु महाराज ने इस रस्म को भी तोड़ दिया उनकी शिक्षा यह थी कि  न कोई गुरु है, न कोई चेला, सब बराबर हैं, सभी मित्र और भ्राता हैंवह सेवा लेना भी बहुत बुरा समझते थे वह कहते थे कि दूसरों की निष्काम भावना से सेवा करो, जो नहीं जानता उसे रास्ता दिखाओ, जो विद्या लेना चाहता हो, उसे विद्या दान करो, पर बदले में कुछ लेने की इच्छा मत करोउनके उपदेश में यह शब्द थे कि गुरु और शिष्य के भाव में द्वैत (गैरियत) रहता है ।  सबको अपना समझो, वह सब तुम्हारे हो जायें और तुम उनके हो जाओ भेद-भाव को मिटा देना ही प्रेम है और ऐसा प्रेम ही इश्वर का रूप है इस नवीनता को भी उन्होंने जन्म दिया, वर्ना गुरु-शिष्य की परिपाटी का रिवाज ऋषि काल से ही चला आ रहा था उन दिनों अच्छा रहा होगा पर आजकल तो साधू संतों ने इसको पेशा कर लिया है

दूसरा काम जो साधना में करना पड़ता है वह मल और आवरणों से हृदय को शुद्ध करना है । ऊपर जो बात मन पर अधिकार करने की कही गई है, उससे विक्षेप दूर होता है विक्षेप के हट जाने पर भी मल और आवरण अंतः करण पर छाये रहते हैं जिनके कारण आत्मा का प्रकाश अंदर छिप जाता है और अंधकार छा जाता है इस अंधकार के कारण ही जीव अशांत और दुखी रहता है इसलिए भगवद-दर्शन के लिए इन मल और आवरणों के हटाने की आवश्यकता है जितने यह दूर होते जाते हैं, उतना ही जीव इश्वर के समीप पहुँच जाता है उसे आनंद और प्रकाश की झलक मिलती जाती है

जप तप प्राणायाम ध्यान इत्यादि जितने भी यौगिक पद्धतियाँ प्रचलित हैं वह सब इसी एक काम को करती है जिन अच्छे बुरे कामों को हम अपने इस जीवन में या पिछले जीवनों में करते आये हैं, इन्हीं का नाम संस्कार है इन संस्कारों का ढेर जब तक नहीं हटेगा, यह दग्ध नहीं कर दिए जायेंगे तब तक दर्शन नहीं हो सकता यह सिद्धांत है

हमारे यहां इस काम को बड़ी आसानी से कर दिया जाता है शिक्षा देने वाला पुरुष, साधक के अन्तःकरण पर अपनी आत्मा का प्रकाश फेंकता है, उसके द्वारा उसके अंधकार को दूर हटाता है । प्रकाश में ज्ञान और आनंद है ऐसा करते ही शिष्य अपनी सारी तपन परे हटा आनंद में विभोर हो जाता है, शांति के समुद्र में तैरने लगता है जो योगियों को पचासों वर्षों में नहीं मिल पाता वह यहाँ पहले दिन से ही भाग्य में आ जाती है   यह हमारे यहाँ की दूसरी देन है

धीरे धीरे अपनी शक्ति से उसके मल व आवरणों को भी हटा फ़ेंक देता है परन्तु इसमें कुछ समय लगाया जाता है   जल्दी करने में शिष्य को हानि हो सकती है हाँ जिनका क्षेत्र तैयार मिलता है उनके लिए देर नहीं की जाती अति शीघ्र प्रभु के दरबार तक उन्हें पहुंचा दिया जाता है

यह सब विशेषताएं रामाश्रम सत्संग की साधना शैली की हैं जिनमे न समय लगता है और न परिश्रम करना पड़ता है गुरु के आश्रय हो बैठ जाना शिष्य का कर्त्तव्य होता है, आगे सब गुरु अपनी जिम्मेदारी पर करता है इसमें शिष्य द्रष्टा रहता है और गुरु कर्ता रहता है यहाँ की शिक्षा स्वभाव को बदलती और प्रेममय जीवन बनाती है 

पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रतिपादित परमार्थ पथ के दस सारभूत सिद्धांत
1.       इश्वर तो एक शक्ति (पावर) है, न उसका कोई नाम है न रूप । जिसने जो नाम रख लिया वही ठीक है ।

2.       उसके प्राप्त करने के लिए गृहस्थी त्याग कर जंगल में भटकने की आवश्यकता नहीं है, वह घर में रहने पर भी प्राप्त हो सकता है ।

3.       अभी तुमने इश्वर देखा नहीं है, इसलिए उसे प्राप्त करने के लिए पहले उससे मिलो जिसने इश्वर देखा है । वही तुम्हे इश्वर का दर्शन करा सकता है ।

4.       अपने जीवन में आतंरिक प्रसन्नता लाओ । यह बहुत बड़ा ईश्वरीय गुण है ।

5.       ज्ञान में शांति है, वह तुम्हे बाहर से नहीं मिलेगी । ज्ञान अंतर में है । उसके लिए आतंरिक साधन करने होंगे ।

6.       अधिक समय तुम संसार के कामों में लगाओ, थोडा समय इधर दो । लेकिन इतने समय के लिए तुम संसार को भूल जाओ ।

7.       दो काम साधक के लिए बहुत ही आवश्यक है एक तो अपने परिश्रम से भोजन कमाना और दूसरा अपने मन को हर समय काम में लगाये रखना ।

8.       ज्ञान अनंत है । यदि एक गुरु उसे पूरा न कर सके तो दूसरे गुरु से प्राप्त करना चाहिए । परन्तु पूर्ण आत्म ज्ञानी गुरु मिल जाने पर दूसरा गुरु नहीं करना चाहिए ।

9.       दुनिया के सारे काम करो लेकिन सेवक बनकर, मालिक बनकर नहीं ।

10.     संसार में मेहमान बन कर रहो । यहाँ की हर वस्तु किसी और की समझो । मैं और मेरा छोड़कर तू और तेरा का पाठ सीखो । 
मुख्यालय एवं केंद्र

गुरु महाराज 813, डैम्पियर नगर, मथुरा, उत्तर प्रदेश में विराजते थे । अतः मथुरा इस सत्संग का मुख्यालय है । गुरु महाराज के दो पुत्र परम संत डॉ ब्रजेन्द्र कुमार जी (ज्येष्ठ पुत्र) एवं परम संत श्री हेमेन्द्र कुमार जी (मझले पुत्र) यहीं विराजे । वर्तमान में परम संत श्री हेमेन्द्र कुमार जी के पुत्र परम पूज्य श्री आलोक कुमार जी यहाँ विराजते हैं। आज वही रामाश्रम सत्संग मथुरा के मुखिया है।

प्रत्येक रविवार सुबह 9.00 बजे साप्ताहिक सत्संग 813, डेम्पियर नगर मथुरा में होता है।  सत्संग साहित्य भी यहाँ उपलब्ध है।  सत्संग साहित्य उन स्थानों पर भी उपलब्ध होता है जहाँ भंडारा आयोजित होता है। 

सन 1933 से साधन नामक एक मासिक पत्रिका साधन प्रकाशन, मथुरा से लगातार प्रकाशित हो रहा है।  इसका दफ्तर 813, डेम्पियर नगर मथुरा है।  यह हर महीने ग्राहकों को डाक के द्वारा भेजा जाता है।  इसके द्वारा अध्यात्म के गूढ़ तथा अनुभवी गुप्त रहस्यों को सरल भाषा द्वारा जनता तक पहुँचाया जाता है।  इसका वार्षिक शुल्क 135 रूपये है।  इसे घर पर मंगाने के लिए शुल्क "साधन हिंदी मोंथ्ली" के नाम मनी आर्डर, ई एम ओ, डी डी, या चेक (मथुरा में देय) द्वारा 813, डेम्पियर नगर मथुरा 281001 को भेज दें।  साधन का e-mail address है  sadhanhindimonthly@yahoo.co.in; और sadhanhindimonthly@sadhan.in; website है  www.sadhan.in; Telephone No: 0565-2404040; 0565-3290790;09319680800; 08791487080. रामाश्रम सत्संग, मथुरा का website है www.ramashramsatsang.com.

देश के विभिन्न स्थानों में साप्ताहिक सत्संग एवं निकट भविष्य में आयोजित होने वाले भंडारों के बारे में जानकारी साधन के वेबसाइट में उपलब्ध है। 

गुरु महाराज के मुख्य शिष्य परम संत पंडित मिहिलाल जी हुए, जो टूंडला, उत्तर प्रदेश में विराजते थे । इन्हीं के अथक प्रयास और कठोर मेहनत का नतीजा है कि आज ये सत्संग देश के कोने कोने में फैला हुआ है । करीब चार दशक तक उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया । साल के अधिकांश भाग वे घर के बाहर रहते । तृतीय श्रेणी के डिब्बों में चलते । शहरों, कस्बों, गांवों में सत्संग कराने जाते । अतएव टूंडला हमारा दूसरा महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया । आज वही कार्य उनके ज्येष्ठ पुत्र परम पूज्य श्री प्रभुदयाल जी एवं उनके मझले पुत्र परम पूज्य श्री कृष्णकांत जी कर रहे हैं । दोनों टूंडला में विराजते हैं एवं साल भर पूरे भारत के कोने कोने में सत्संग कराने जाते हैं । परम पूज्य श्री कृष्णकांत जी विदेशों में भी जाकर गुरु महाराज का सन्देश फैला रहें हैं ।

प्रत्येक रविवार सुबह 9.00 बजे स्मृति भवन टुंडला में साप्ताहिक सत्संग होता है।  यह टुंडला रेलवे स्टेशन से लगभग 3 किलो मीटर पर स्थित है।  परम पूज्य पंडितजी महाराज का घर टुंडला रेलवे स्टेशन और स्मृति भवन के बीच है। 

गुरु महाराज के कनिष्ठ पुत्र परम संत डॉ नरेंद्र कुमार जी हुए, जो जयपुर, राजस्थान में विराजते थे । उन्होंने सत्संग  परिवार का उस वक्त मार्ग दर्शन किया जब पूज्य पंडितजी महाराज, जगद्जननी जिया माँ एवं बड़े भैया जी हमसे पर्दा कर गए । अतएव जयपुर हमारा तीसरा महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया । आज वहां परम पूज्य माता जी अपने मझले पुत्र परम पूज्य श्री अमित कुमार जी एवं छोटे पुत्र परम पूज्य श्री मोहित कुमार जी सहित विराजती हैं ।

इनके अतिरिक्त हमारे कुछ महत्वपूर्ण केन्द्र हैं -- दिल्ली, बिहार में पटना एवं गया, गुजरात में अहमदाबाद, उत्तर प्रदेश में लखनऊ, कर्णाटक में बेंगलुरु, आंध्र प्रदेश में हैदराबाद, मध्य प्रदेश में ग्वालियर, महाराष्ट्र में मुंबई, गोवा में वास्को-डा-गामा, झारखण्ड में रांची, इत्यादि ।

साप्ताहिक सत्संग आपके शहर या गांव में  कहां होते हैं और आने वाले समय में भंडारे कहां होने वाले हैं, ऐसी जानकारी प्राप्त करने के लिए अगर कोई सहायता चाहिए तो कृपया निःसंकोच फोन करें या SMS करें 09650972360 (alok) अथवा ईमेल (e-mail) करें alok_krn@yahoo.com

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