इस ब्रह्माण्ड को पांच कोषों में विभाजित किया गया है। पृथ्वी लोक को अन्नमय कोष कहा गया है। इससे सटे और इसके ऊपर प्राणमय कोष है जिसमे वह सूक्ष्म लोक है, जिसे नर्क कहा गया है। इसके ऊपर है मनोमय कोष। स्वर्ग जो नर्क की तरह एक शूक्ष्म लोक है एवं जहाँ मनुष्य सूक्ष्म शरीर से अपने सकाम शुभ कर्मों का भोग भोगते हैं, वह इसी मनोमय कोष में स्थित है। इसके ऊपर है विज्ञानमय कोष और आखिर में है आनंदमय कोष। जो माया के हद को छूता है। आनंदमय कोष तक माया या ब्रह्माण्ड की सीमा है।
इस आनंदमय कोष के पार क्या है? आनंदमय कोष तक का वर्णन तो मिलता है। आगे का वर्णन नहीं मिलता है। उसे सभी अगम, अगोचर, अनिर्वचनीय इत्यादी कहते है। हमारे परम समर्थ गुरु महाराज ब्रह्मलीन परमसंत श्री डॉ चतुर्भुज सहाय जी ने यथार्थ ज्ञान क्या है इस विषय को समझाते हुए उस अगम अगोचर लोक की कुछ झांकी हमें दिखाया है। आइये उन्हीं के परम पवित्र एवं चिन्मय शब्दों का आनंद लीजिए -- “यथार्थ ज्ञान (श्रेष्ठ ज्ञान) वास्तव में एक ऐसा ज्ञान है जो कहने में नहीं आता। बुद्धि व वाणी की वहाँ पहुँच नहीं है। लेखनी उसे लिख नहीं सकती, अनुभवगम्य है; महसूस (feel) होता है, पर कथन किया नहीं जा सकता। हाँ ऐसे लोगों के मुख से इतना सुनने को मिलता है कि अब तक जो कुछ सुना या समझा था वह थोथा और बेबुनियाद था। परन्तु इस मिथ्यावाद के आगे क्या था, यह हमारी समझ में भी नहीं आया। वहाँ जाकर मूर्ख और अज्ञानियों की सी दशा हो गयी। हमारी अक्ल मारी गई। वहाँ न द्वैत था न अद्वैत था, मैं था न ‘तू’ था, केवल एक प्रेम की मस्ती थी, बेखबरी का आलम था। अहंकार का लोप था, बुद्धि पीछे छूट गयी थी और मन के पते न थे। वहाँ न ज्ञान है न अज्ञान है, न एक है न दो हैं। इन सब से ऊपर है -- जो है वह है। इतना ही उसका वर्णन हो सकता है।”
इसी लोक का वर्णन परम पूज्य श्री कृष्ण कान्त जी महाराज ने अपने पुस्तक सोमपान के २२वें अध्याय में किया है। आइये उन परम पवित्र एवं चिन्मय शब्दों का आनंद लीजिए – “....गुरु कृपा होती है और जीव इस घेरे (आनंदमय कोष में जीव पर एक हल्का सा आनंद का आवरण होता है इसी आवरण के घेरे के तरफ यहाँ इशारा किया गया है) को भी पार कर उस सत् लोक में ही प्रवेश कर जाता है जहाँ कोई बंधन नहीं कोई आवरण नहीं, यही स्थान प्रभु का निज धाम है। यहाँ वह सत् वह जगत को चलाने वाली शक्ति विराजमान है। यहाँ इस सत् लोक में ज्ञान और आनंद बराबर अपनी सुगंधित धारें छोड़ते रहते हैं। यहाँ उस प्राणी को सत् चित आनंद का एक ही रूप में दर्शन हो जाता है। यहाँ न सुख है न दुःख है न ज्ञान है न अज्ञान है, पूर्ण संतुष्टि है। यहाँ वह उस सत्य का पूर्ण रूपेण दर्शन करता है। इस दर्शन के बाद उसके जीवन में कोई असंतोष नहीं, कहीं दुख का नाम नहीं वह पूर्ण संतुष्ट। .... यहाँ पहुँच कर साधक की सारी वृत्तियाँ बदल जाती हैं। अब वह संसार के हर प्राणी में उसी परमात्मा का दर्शन करता है, उसके साथ प्रेम का व्यवहार करता है। ‘मैं’ मिटकर ‘तू’-‘तेरा’ आ जाता है। उस साधक के हृदय से सदैव प्रेम की वर्षा होती रहती है। वह सब प्राणियों में अपने इष्ट के दर्शन करता है तथा सारा संसार उस साधक में अपने इष्ट का स्वरुप देखता है।”
ब्रह्मलीन परमसंत परम पूज्य पंडित जी महाराज के जीवन की एक घटना है जो उस लोक का कुछ पता देती है। आइये उन्हीं के परम पवित्र एवं चिन्मय शब्दों का आनंद लें – “एक बार मुझे गुरु महाराज ही के कमरे में उन्हीं की चारपाई के पास सोने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। रात्रि में, मैंने एक स्वप्न देखा -- जिसका वर्णन गुरु महाराज को सुनाया -- कुछ ही देर सोया होऊंगा कि देखा एक बहुत सुन्दर पक्षी स्वेत रंग जिसका बहुत उज्जवल वर्ण था, जिसके नेत्र बहुत सुन्दर और सुर्ख रंग के थे -- लगा जैसे हंस ही उस कमरे में आया; कुछ देर बैठा और मेरी ओर देखकर उड़ चला। बस, मैं भी एक पक्षी के रूप में हो गया और उस के पीछे उड़ने लगा। मेरा कद छोटा था, उड़ान कम थी परन्तु कुछ शक्ति ऐसी मिली कि मैं भी उसके पीछे पीछे उस शक्ति से उड़ने लगा। हजारों मील का मैदान पार किया। आगे एक पर्वत मिला। वह पक्षी उस पर्वत में भी उसी प्रकार उड़ता गया जैसे मैदान में उड़ता था। मैंने भी उसका साथ नहीं छोड़ा। पर्वत से निकलकर एक बड़ा समुद्र मिला। उस पर भी उड़ता रहा। आगे देखा कि अग्नि का एक पर्वत जैसा था – ज्वालाएं उठ रही थी। उसमें भी अबाध गति से उड़ता गया। उस अग्नि में न तो उस पक्षी को कोई रूकावट हुई, न मुझ को। आगे और भी हम दोनों उड़ते गए – जहाँ वायु का प्रबल वेग था, कुछ दिखाई भी नहीं देता था। उसके बाद एक अवकाश सा मिला। खुली हुई जगह थी, सुहाना दृश्य था। आगे और भी कई स्तर पार करके, मैं उस पक्षी के साथ उस देश में पहुंचा जहाँ न सूर्य था न चाँद परन्तु आकाश बहुत ही सुहाना था। वहाँ सब एक ही रूप के थे। हर एक के मुख पर सुन्दर प्रकाश था। शरीर फूल से भी हल्का था। जन्म मृत्यु का भी वहाँ ख्याल नहीं था। सब के अंदर एक अपार प्रेम था। परन्तु यह सब देखकर मेरी आँख खुल गई।”
जब यह स्वप्न उन्होंने गुरु देव को सुनाया तो इस पर उन्होंने कहा – वह बड़ा पक्षी मैं ही था। तुम जीवरूप से मेरे साथ छोटे पक्षी के शरीर में थे। तुम्हारी एक बार ऐसी इच्छा हुई थी कि यह सब देखूं, लोक लोकांतर की सैर करूँ। इसलिए यह सब हुआ। पहले तुमने पृथ्वी, जल, अग्नि, आदि पांच तत्वों में होकर प्रवेश किया, उसके बाद मन, बुद्धि, आदि के स्थान पड़े। प्रत्येक देश अथवा स्थान का रूप अलग अलग था। उसके रंग और भाव अलग थे। आगे वह मेरा ही देश था जहाँ उड़ना बंद हुआ, परम शांति थी; सब में अत्यंत प्रेम था। वह सब तुमने मेरे सहारे से पार किया है। आगे अपनी साधना से करोगे, तब यह सब स्थान तुम्हारे स्वभाव में आ जायेंगे। जब जहाँ चाहो - जा सकोगे।”
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