Wednesday, 25 January 2012

हमारे सत्संग का इतिहास


हमारे सत्संग का इतिहास

हमारे सत्संग धारा का प्रवाह हमारे परम पूज्य समर्थ गुरु ब्रह्मलीन परमसंत महात्मा श्री रामचन्द्रजी महाराज ने शुरू किया था। उन्होंने अपने परम शिष्य हमारे परम पूज्य समर्थ गुरु ब्रह्मलीन परमसंत डॉ चतुर्भुज सहाय जी महाराज को इस सत्संग को जारी रखने का आदेश दिया था। इस सत्संग का इतिहास हमारे सत्संग साहित्य ( अमूल्य निधि भाग १ के अध्याय १७ इस सत्संग का इतिहास , जीवन दर्शन, अतीत आगत और अनंत, प्रथम भाग, एवं परम भागवत पंडित मिहीलाल जी) के आधार पर निम्नलिखित है।

(अमूल्य निधि भाग १ के अध्याय १७ इस सत्संग का इतिहास से लिया गया यह पूज्य गुरु देव का एटा भंडारा सन १९३७/१९३८ में दिया गया प्रवचन का सम्बंधित अंश है )
"  xxxxxxx

संसार परिवर्तनशील है। इसमें समय समय पर अनेक दिव्य पुरुष लोक-उद्धार के निमित्त प्रगट हुए। उन्होंने देश-काल और वस्तु पर विचार करते हुए जीवों को एक नवीन मार्ग दिखाया, अनेक प्राणियों का उद्धार किया, अनेक लोग उनके मार्ग का अनुकरण कर सुख और शांति के धाम में जा पहुंचे। परन्तु काल-गति से धीरे-धीरे उनकी नसल बिगड़ती गई, पंथ और संप्रदायों में केवल बाहिरी रस्मी बातें रह गई, असल तत्व को वह लोग हाथ से खो बैठे। यह देख उस मालिक-कुल (परमात्मा) के हृदय में क्षोभ आया और उसने अपनी असीम दया से हम लोगों के उद्धार के हेतु एक महान आत्मा को इस पृथ्वीतल पर भेजा। वह संत सतगुरु के रूप में प्रगट हुई और अपना काम पूरा कर अगस्त १९३१ ई में नर शरीर त्याग कर अपने देश को पयान कर गई।

इस महान आत्मा ने अपने जीवन का प्रथम भाग कठिन तप रियाजतों में व्यतीत किया। उसने इन दिनों में अपनी सम्पूर्ण आतंरिक शक्तियों को जाग्रत किया, सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्वों को अनुभव किया, अपने मस्तिष्क में पूर्णरूप से आत्मज्ञान का संग्रह किया, फिर अपने उन सिद्धांतों के प्रचार के लिए इरादा कर लिया। सबसे प्रथम श्री पूज्य पंडित प्यारेलाल जी उपदेश ग्रहण कर उनके अनुयाई बने और थोड़े दिनों में ही अपना कार्य पूर्ण कर इस भौतिक शरीर देही को त्याग यहाँ से चलते बने। उसके पश्चात दूसरा नंबर इस अधम दास (हमारे परम पूज्य समर्थ गुरु ब्रह्मलीन परमसंत डॉ चतुर्भुज सहाय जी महाराज) का था जो आज तुम्हारे सम्मुख बैठा हुआ तुम्हारी आत्मिक सेवा कर रहा है। पीछे थोड़े से और लोगों ने भी हमारे साथ शिरकत की कि जिसमें अधिकतर नवयुवक पार्टी थी।

आह! कैसा अच्छा जमाना था, कैसे आनंद के दिन थे जब हम सब भाई प्रेम के साथ एक दूसरे को प्यार करते थे, रात को अपने रूहानी बाप की गोदी में सोते थे, उनके कपड़े ओढते थे, और उनके बिस्तर पर लोटते थे। सारे संसार में गुरु शिष्य की परिपाटी दिखाई देती थी परन्तु वह हम लोगों को शिष्य नहीं बल्कि पुत्र समझते थे। हम लोग भी पिता भाव से उनकी प्रतिष्ठा करते थे, उनको अपना पिता ही जानते थे। शिष्य का गुरु के साथ क्या व्यव्हार होता है? उसको अपने गुरु का कितना अदब करना चाहिए? यह हम लोगों ने कभी जाना ही नहीं, वह हमारे थे और हम उनके थे।

Xxxxxxxx

पहली विशेषता जो उन्होंने दिखलाई वह यह थी कि गुरु शिष्य की रस्म को मेटकर पिता-पुत्र की शैली चलाई। इसका प्रभाव यह हुआ कि सत्संग में प्रेम का समुद्र लहरें मारने लगा। हम सब भिन्न-भिन्न स्थानों तथा भिन्न भिन्न जातियों के होते हुए भी ऐसे एक हुए कि अपने असली सम्बन्धियों को भी भूल गए और वहाँ का इश्क हमारे दिल में सवार हो गया।

इसके असर से  हमारे प्रेम के जज्बे को ठोकर लगी। वह जग उठा और हमको घर ही घर में ऊपर को खींचने लगा क्योंकि प्रेम में आकर्षण है, वह ऊपर को उठाता है। इस उठने में उन हमारे आत्मिक पिता ने अपने बल का सहारा दिया और एकदम हमको इतना ऊँचा उठा दिया कि हम उन दिव्य लोकों के दर्शन करने लगे कि जिनके देखने के लिए बड़े बड़े तपस्वी भी तरसते हैं। बस, यही प्रेम और यही उनका सहारा हमारे साधन रहे। इन्हीं का अभ्यास हमने किया और अब भी कर रहे हैं और जो कुछ तुम हमारे पास देख रहे हो यह सब उसी साधन का फल है और इसके अतिरिक्त न कुछ हमने कोई क्रिया की और न हम जानते हैं।


XXXXXXXXXX

उनकी शिक्षा थी, "कुछ न करो हमसे मिलते रहो दूर होने पर जैसे अपने प्रेमी कि याद रखते हैं वैसे ही दिल में हमारा तसव्वुर (ध्यान) रक्खो, ताकि हमें भी तुम्हारी याद आती रहे। बस, इतना ही साधन तुम्हारे लिए काफी है, इसी से कल्याण हो जायेगा । न जप, न तप, न योग, न आचार, किसी के करने की आवश्यकता नहीं है । यह सब तुम्हारे बदले में हम करेंगे । तुम्हारे मलों को, तुम्हारे बुरे संस्कारों को हम ले लेंगे। तुम सब आराम पाओ, आनंद सागर में डुबकी लगाओ । इसी में हमको खुशी होगी । अपने सुख की हमको परवाह नहीं है ।

xxxxxxxx

इसको सत्संग का प्रथम युग कहना चाहिए। 

द्वितीय युग

इस प्रकार यह सिलसिला कायम होकर कुछ दिन गुपचुप चलता रहा। उनकी भी यही हिदायत थी कि किसी पर जाहिर न किया जाए। वह खुद भी इतने सादा और छुपे हुए रहते थे कि कोई दिन रात पास बैठने वाला मनुष्य भी उनको नहीं पहचान सकता था कि वह एक फकीर कामिल हैं। सम्पूर्ण आत्मिक और मानसिक शक्तियों पर अधिकार रखने वाले मनुष्य है। अड़ोसी-पड़ोसी भी उनके इस भेद से नावाकिफ थे।

परन्तु बात छिपाए कहाँ तक छिप सकती है। सूर्य निकलने पर उजाला छा ही जाता है, सूर्य के छिपाने पर भी प्रकाश तो फैलेगा ही और संसार को निकलने का पैगाम देगा ही, इसमें किसी का क्या चारा है। यह प्राकृतिक नियम है। धीरे-धीरे प्रशंसा फैलने लगी। भूले-भटके जिज्ञासु अपने लाल को गुदरियों में तलाश करने के लिए आ पहुंचे और कुछ न कुछ लेके ही वहाँ से लौटे। इस प्रकार तादाद बढ़ने लगी और सौ डेढ़ सौ मनुष्यों की एक सुसाइटी बन गई। यह सत्संग का दूसरा युग था।


इस ज़माने में हम सब लोगों का यह नियम रहा कि जब कभी फुरसत मिलती दर्शनों को जा पहुँचते। उनके मकान पर ही ठहरते, उनके यहाँ ही भोजन पाते और मेहमान की तरह सारे आराम उठाते। किसी को स्वप्न में भी यह ख्याल नहीं होता था कि हम किसी दूसरी जगह ठहरे हुए हैं, दूसरे का भोजन कर रहे हैं और अपने आराम के लिए उन सब को कष्ट दे रहे हैं। बल्कि सबको यह जान पड़ता था कि हम सब अपने पिता के पास आए हुए हैं और अपने घर में ही बैठे हैं। अगर कोई नया आदमी भोजन करने या किसी बात के लिए हिचकता और उनको कष्ट ना देना चाहता तो आप कहते कि यह गैरियत कि बात है। यह घर हमारा भी है और तुम्हारा भी"। इस प्रकार रोजाना ही दस पांच बाहर के मनुष्य उनके द्वारे पड़े रहते और छुट्टियों में तो एक बड़ी भीड़ जमा हो जाती थी। उन सबका भाड़ वही उठाते थे।

xxxxxxxxxxxxxxxxxxx

दीपक ने बुलाया नहीं पर पतंगों ने उसे घेर ही लिया। उसके ऊपर मंडराने लगे और प्राण खोने लगे। जब किसी तरह बचाव की सूरत नहीं रही तो उन्होंने मजबूर होकर खुले मैदान प्रचार का इरादा कर लिया और डंका बजा दिया कि जिस किसी को सच्ची रूहानियत की तलाश हो वह हमारे पास आए और हमसे सीधी सादी क्रिया जानके उस अमूल्य निधि को प्राप्त करें। यहाँ पर दूसरा युग समाप्त हो गया।


तृतीय युग

अब हमारा तीसरा युग प्रारंभ हुआ। इस युग में उन्होंने प्रचार के लिए दौरा करना भी शुरू कर दिया क्योंकि बिना घूमे हुए प्रचार नहीं हो सकता। सारे संत महात्मा और महापुरुषों ने अपने सिद्धांत फैलाने और जीवों को कल्याणकारी मार्ग बताने के लिए भ्रमण किया है। फुरसत मिलने पर बाहर भी जाने लगे और वहाँ भी जो जिज्ञासु आते उन्हें खोल खोल गुप्त रहस्य सिखाने लगे। यू पी के हरेक जिले में सत्संग कायम हो गए। राजपुताना और बुंदेलखंड में प्रचार काफी हुआ। कुछ कुछ बंगाल, सी पी, और पंजाब तथा मालवा में भी उनके अनुयाई नज़र आने लगे। इस प्रकार थोड़े ही काल में चारों ओर धूम मच गई और सहस्त्रों मनुष्य उनकी शरण में आ गए।

भंडारा

अब इस बात की भी फिक्र हुई कि वर्ष में इन सब का एक सम्मलेन हो ताकि उस समय सब मिलकर अपने अपने विचार तब्दील करें। परस्पर प्रेम बढ़ायें। आगे के लिए सबक लें और पिछला पाठ सुनायें। क्योंकि बिना इसके उन्नति नहीं हो सकती। शिष्य जितना अधिक गुरु का समीपत्व प्राप्त कर सकेगा, उतना ही जल्दी वह ऊँचा चढ सकेगा ऐसा ही नियम है। जो विद्यार्थी अपने मास्टर का वर्षों मुख न देखे वह आगे का पाठ कैसे पढ़ सकता है?  Xxxxxxxxx  

हमारे यहाँ की उन्नति तो मिलने मिलाने पर ही निर्भर है क्योंकि यहाँ का साधन शिष्य नहीं करता गुरु करता है गुरु अपने आत्मबल से ऊँचा उठाता है शिष्य को कोई क्रिया नहीं करनी होती वह चुपचाप अपने मन की गति देखता रहता है इसके लिए मिलने की बहुत जरुरत है भंडारे करने की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि कम से कम इसी बहाने साल में एक बार तो गुरु का सत्संग सबको प्राप्त हो जाए

अभी तक धन का कोई सवाल हमारे यहाँ नहीं था नज़र लेने की रस्म को जैसा कि सब जगह दूसरे लोगों में प्रथा है, उन्होंने बंद कर दिया था गद्दी और नज़र भेंट के वह हमेशा विरोधी रहे उनके विचार से यही दोनों काम फकीरों को तबाह करने वाले हैं   xxxxxxxx परन्तु वर्तमान युग में फकीरी भी बिना पैसे के नहीं चलती हर एक बात के लिए पैसे की जरूरत है प्रचार करने वाले का काम तो बिना पैसे किसी प्रकार भी नहीं चल सकता इधर हम लोगों का ध्यान भी इधर गया और सब सेवक इसके संबंध में सोचने लगे किसी ने लम्प सम (lump sum), किसी ने मासिक चंदे के रूप में रूपया जमा करना आरम्भ कर दिया हम कुछ लोगों ने दो पैसे फंड का हिसाब खोला जैसी कि उनकी आज्ञा थी कि अपनी कमाई का बत्तीसवां भाग ईश्वरीय कामों के लिए ज़कात निकालो इस प्रकार एक अच्छी खासी रकम जमा होने लगी उसमें भंडारा भी होने लगा (फतेहगढ़ में) सत्संग के दूसरे खर्च भी चलने लगे और बचे खुचे रकम से निर्धन विद्यार्थियों को, शरीफ विधवाओं को तथा गरीब सत्संगी भाइयों को सहायता दी जाने लगी
  
xxxxxxxxx

चौथा युग

लगभग पच्चीस वर्षों के अंदर सत्संग के सतयुग, त्रेता और द्वापर तीन युग आनंद पूर्वक बीत गए, अब हमारे यहाँ कलियुग ने प्रवेश किया इस दुष्ट के आते ही हमारे कृष्ण ने भूमंडल से चले जाने का निश्चय कर लिया एक वर्ष से ही उन्होंने आगे के प्रबंध आरम्भ कर दिए समय समय पर लोगों को वसीयत के रूप में समझाने लगे विदा होने से तीन मास पूर्व अलग ले जाके मुझे भी कुछ हिदायतें की  xxxxxxxxxx

इसी अंतिम समय में एटा सत्संग का जन्म हुआ और इसका प्रथम उत्सव उनकी आज्ञा से १९३० ई के दिसम्बर में हुआ कि जिसमें वह बड़े हर्ष के साथ सम्पूर्ण कुटुंब तथा अनेक प्रेमियों से घिरे हुए पधारे और तीन दिन तक रुग्ण होने पर भी बड़े परिश्रम के साथ आनंद वर्षा की। उस समय उनके लघु भ्राता श्री चच्चाजी साहब ने इस अवसर को सुशोभित किया था और इन दोनों महापुरुषों ने मिलकर हमारे उत्साह को बढ़ाया था। xxxxxxxxxx

एटा में भंडारा करने का मुख्य कारण यह था कि उन्होंने अपने सत्संगों के दो भाग कर दिए थे एक पूर्वीय सर्किल और दूसरा पश्चिमी सर्किल पूर्वीय सर्किल की देख रेख श्री चाच्चाजी साहब की सुपुर्द थी कि जो कानपुर में निवास करते थे और अब भी हैं और पश्चिमी सर्किल और विशेषकर आगरा डिवीजन की सेवा का भार हमारे सर पर डाला पूरब वालों के उत्सव के लिए कौंच (बुंदेलखंड) को सेंटर बनाया और पश्चिम वालों के लिए एटा इन दोनों के ऊपर जनरल उत्सव ईस्टर में फतेहगढ़ रक्खा इसमें हर जगह के लोग जो जाना चाहें जा सकते हैं दिसम्बर १९३० ई में यह प्रबंध करके उस पवित्र आत्मा ने अगस्त सन १९३१ ई में इस भौतिक जगत को त्याग दिया

सुसाईटी बढ़ने पर उसमें अच्छे और बुरे सब प्रकार के लोग सम्मिलित हो जाते हैं हमारे यहाँ भी कुछ ऐसे मनुष्य थे जिनकी वृत्तियाँ अच्छी नहीं थी वैमनस्य बढ़ाने तथा चुगल खोरी करने में निपुण थे

xxxxxxxxxx

इन्होने हमरे ऊपर कुठाराघात किया और झूठी-सच्ची बातें इधर की उधर भिड़ाकर हमारे जुड़े हुए दिलों को एक से दो कर दिया xxxxxxxx उन्होंने जिस बुनियाद पर यह किले की दीवार खड़ी की, वह यह थी कि डाक्टर साहब की यह ख्वाहिश है कि सब लोग हमको ही बड़ा मानें और हमारी ही हुक्म में चलें xxxxxxxx हालाँकि हमारे दिमाग में यह सौदा (जुनून) इश्वर की कृपा से न कभी हुआ और न अब है हम तो श्री चच्चाजी साहब की ज़ेर सरपरस्ती रहने में ही खुश थे परन्तु हमारे भाइयों को ही नहीं बल्कि बुजुर्गों को भी उनकी बात पर विश्वास हो गया xxxxxxxxxx और सब ऐसे जुदा हुए की हम लोगों की अत्यंत कोशिश करने पर भी आज तक फिर एक नहीं हो सके मानो एक प्रकार की प्रलय हमारे सत्संग पर आ गई  कृष्ण चलते समय अपने वंशज यादवों का नाश कर गए थे हमारे श्याम ने भी यही लीला यहाँ कर दिखाई यह चौथे युग कलियुग का प्रभाव इस सत्संग पर पड़ा 

(परम पूज्य दादा गुरु श्री महात्मा रामचंद्र जी महाराज ने इस संसार से महाप्रयाण करने से पहले श्री गुरु महाराज को निम्नलिखित आदेश दिया था – जिस कार्य को हमने आरम्भ किया है उसको जारी रखना और भरसक प्रयत्न करते रहना तुम स्वयं नेक बनो और दूसरों को नेक बनने की शिक्षा देते रहो हमारा यह मिशन फेल न होने पावे निष्काम भाव से जो दूसरे प्राणियों की सेवा करता है xxxxxxx जो अपना तन व मन अर्पण कर देता है, वही वास्तव में मनुष्य है उसका कल्याण होता है और उसके ऊपर भगवान दया करते हैं  -- ‘अतीत आगत और अनंत' से )

नवीन सृष्टि

प्रलय के पश्चात रचना बंद नहीं हो जाती फिर नया सिलसिला आरम्भ होता है बीज नाश कभी नहीं होता बचे खुचे यादवों ने फिर हिम्मत बांधी और अपने बाहुबल से नवीन राज्यों की स्थापना की अब यादव एक जगह नहीं रहे बल्कि अपनी अपनी राजधानी अलग बना बैठे और अपने अपने राज्यों का स्वतंत्र प्रबंध करने लगे किसी से कोई सरोकार नहीं जिसका दिल जिसके साथ रहने को चाहा वह उसके साथ हो लिया हमारे यहाँ भी यही हुआ और हो रहा है सब लोग स्वतंत्र हो बिखर रहे हैं, अपने अपने अड्डे कायम कर लिए हैं, किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है


इस सत्संग की स्थापना सन १९३० ई में श्री पूज्य महात्माजी महाराज के कर कमलों से हुई थी सन १९३१ और सन १९३२ ई दो वर्ष इसके घरेलु कलह में समाप्त हुए उन दिनों कुछ काम न हो सका सन १९३३ ई में सत्संग एटा ने फिर से प्रचार का काम जारी किया कि जिसको आज चार वर्ष होते हैं और जो कुछ आप देख रहे हैं वह इन्हीं चार वर्षों का काम है xxxxxxxx चारों दिशाओं से झुण्ड के झुण्ड प्रेमी लोग कष्ट उठा उठा कर यहाँ चले आते हैं एटा जैसी जगह कि जहाँ न रलवे स्टेशन है और न यहाँ कोई आराम का सुभीता है राजपुताना, बिहार, सी पी और बंगाल तक के लोग यहाँ के सडकों के सैर करते देखे जाते हैंxxxxxxxxxxx ’    

परम पूज्य दादा गुरु महाराज ने पूज्य गुरुदेव को सत्संग के कार्य करने कि लिखित आज्ञा सन १९१९ में ही दे दिया था। गुरु महाराज ने प्रारंभ में कुछ छोटी छोटी पुस्तकें लिखी जिनकी भाषा सरल थी और मूल्य भी कम था। जिनसे सत्संग की विचारधारा को फैलाव मिला। उनमें पहली ‘भक्त तुकाराम’, दूसरी ‘सहजोबाई’, और तीसरी ‘आमन देवी’ थी जो दो भागों में प्रकाशित की। एक पुस्तक मुख्यतः सत्संगियों के वास्ते लिखी जिसका नाम ‘अभ्यासियों का कर्त्तव्य’ था। एक और पुस्तक उन्होंने लिखी जिसे पूज्य महात्मा जी महाराज ने प्रकाशित करने से रोक दिया।"


(आगे के भाग "जीवन दर्शन", एवं "परम भागवत पंडित मिहीलाल जी" से लिया गया है)
१९३२ का भंडारा

१९३२ में जो भंडारा हुआ उसमें सत्संगी कुछ कम थे। आपके मकान में ही एक चबूतरा था उस पर बैठकर सब लोगों ने सत्संग किया। अगली वर्ष फिर भंडारा बसंत का रक्खा गया, लोग बड़ी संख्या में इकट्ठे हुए xxxxx उस समय भंडारे में दिन में तीन बार बैठक होती थी। प्रातः सात बजे सत्संग आरम्भ हो जाता और लगभग दस बजे तक चलता, फिर शाम को चार बजे से छः बजे तक और अंतिम रात्रि को सात बजे से नौ बजे तक बैठक चलती। उस समय कोई अधिक बोलने वाला भी नहीं था, कुछ समय श्री ठाकुर मेघ सिंह जी अवश्य लेते थे, शेष पूरे समय आप ही उपदेश देते रहते।

साधना की शैली

१९३२ और १९३३ से सत्संग का कार्य बहुत अधिक बढ़ गया था, बहुत से जिज्ञासु बाहर से आने लगे थे। इस समय आप (परम पूज्य गुरु महाराज साहब) एटा में ही विराजते थे। उस समय साधना बताने का ऐसा नियम नहीं था जैसा आज काल चल रहा है। उस समय (सन १९४५-४६ तक) एक ही जिज्ञासु को कमरे में अकेले सामने बिठा कर साधना बतलाते थे और लगभग उसे आधा घंटा तक साधन कराते थे। जिज्ञासु जब आपके सामने से उठता था तो एक नयी दुनिया का दृश्य देखता था। सब कुछ भूल कर एक अपूर्व सुख का अनुभव करता था और संभव यह भी था कि प्रथम दिन ही वह कुछ अंतिम लक्ष्य का अनुभव कर जाए।

मासिक पत्रिका साधन का जन्म

विचारों को और फैलाने के दृष्टि से परम पूज्य गुरुदेव ने सन १९३३ के अगस्त महीने में सत्संग के मासिक पत्रिका साधन का प्रथम अंक प्रकाशित किया। वह कृष्ण जन्माष्टमी का दिन था, एक उत्सव हुआ और साधन मासिक पत्रिका का जन्म दिवस बड़े सुन्दर समारोह के साथ मनाया गया। प्रेस अपना नहीं था इसलिए पहले 'साधन' भारत बंधु प्रेस, अलीगढ से प्रकाशित किया गया। आगे चलकर यह पत्र एटा से निकलने लगा। इस पत्रिका ने गुरु महाराज की वाणी को विद्युत की भांति पूरे देश एवं विदेशों में भी फैलाने का काम किया। पढ़े लिखे लोग भी इधर को झुकने लगे। बिहार के श्री बाबू राजेश्वरी प्रसाद सिंह जी (बिहारी जी) साधन के एक लेख को पढके एटा पहुँच गए और सत्संग का बिहार में डंका पीट दिया। सारा बिहार प्रान्त सत्संग के सुन्दर रंग में रंग गया। राजस्थान के श्री बाबू साधों नारायण जी एडवोकेट भी गुरु महाराज के विचारों से प्रभावित हो कर एक पत्र लिखकर उन्हें राजस्थान आने का अनुरोध किया। राजस्थान में भी सत्संग का बीज पड़ गया। धीरे धीरे ये पूरे राजस्थान में फैल गया। इसी तरह ये सत्संग देश के कोने कोने तक पहुँच गया।
गुरु महाराज सत्संग के लिए बाहर जाने लगे

एटा में रेल का स्टेशन नहीं था। देश के कोने कोने से लोगों को वहाँ पहुँचने में कठिनाई होती थी। लोगों ने गुरु महाराज से प्रार्थना किया कि यदि वे कभी कभी उनके स्थानों पर पधारने की कृपा करते तो अनेक लोगों को लाभ मिलता जो एटा तक की यात्रा नहीं कर पाते थे। प्रार्थना स्वीकार हो गई। सत्संग का काम दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा।

शिक्षक या आचार्यों द्वारा कार्य में हाथ बंटाना

जब काम बहुत बढ़ गया तो गुरु महाराज ने कुछ व्यक्तियों को तैयार किया जो इस काम में उनका कुछ हाथ बंटा सके। वे एक शिक्षक या आचार्य के समान थे। उन्हें काम करने की आज्ञा दी गई और वह लोग स्थान-स्थान पर सत्संग का कार्य करने लगे। इन सबका काम यही था कि वह लोगों को इस ओर लगा दें और किसी स्थान या भंडारे पर गुरु महाराज से मिला दें।

सत्संग के केंद्र

गुरु महाराज ने कई जगह सत्संग के केन्द्र भी स्थापित किये जहाँ प्रतिवर्ष वो पहुँचते थे और भंडारा होता था। प्रथम १९४० में उन्होंने चुल्हावली (टूंडला) में भंडारा किया। लोग अच्छी संख्या में आये। उसके बाद दाहिनी (शिकोहाबाद) भी कुछ दिनों चलता रहा। उसके बाद लोगों का उत्साह और बढ़ा और बिहार के लोगों ने उनसे मुगलसराय आने की प्रार्थना की। बिहार के तरफ रेलवे के लोग उन दिनों बहुत थे अतः भंडारा मुगलसराय ही रखा गया। 


गुरु महाराज ने कुछ भंडारों का समय निश्चित कर दिया 


 गुरु महाराज ने कुछ भंडारों के समय भी निश्चित कर दिए। टूंडला जन्माष्टमी पर, जयपुर चैत्र सुदी रामनवमी पर, बिहार के लिए दिसम्बर और जनवरी, और मध्य प्रदेश में ग्वालियर में गुरु पूर्णिमा का समय निश्चित किया। इस प्रकार वर्ष में बहुत बड़ा भाग आप को बाहर बीत जाता, घर पर बहुत कम रह पाते थे। इन सब यात्राओं में बिहार का दौरा सबसे लंबा होता। बिहार में कई जगहों पर सत्संग का आयोजन होने लगा था। मुगलसराय से आगे भभुआ रोड, दिलदार नगर, बक्सर, आरा, दानापुर, गया, शेरघाटी, जमालपुर आदि आदि स्थानों पर उत्सव होने लगे। गया में लोग अधिक संख्या में एकत्रित हो जाते थे इसलिए गया का भंडारा निश्चित कर दिया ।
  
पूज्य गुरुदेव का एटा से मथुरा जाना

गुरु महारज ने देखा कि लोग बहुत दूर दूर से आते हैं, एटा के लिए कोई रेलवे लाइन नहीं है। एक बार तो ऐसा हुआ कि मोटर वालों ने हड़ताल कर दी और शिकोहाबाद स्टेशन तथा जलेसर रोड स्टेशन से लोग पैदल ही एटा पहुंचे। इनमें वह लोग भी थे जो बिहार तथा कलकत्ते से आए थे, और स्टेशन पर कोई सवारी नहीं मिलने के कारण तैंतीस मील पैदल चल कर एटा दूसरे दिन पहुंचे। इनके पास अपने अपने बिस्तर थे और कुछ सामान भंडारा के लिए भी था। गुरु महाराज ने जब इन लोगों की लगन देखी और साथ ही इनके कष्ट को देखा तो यह विचार किया कि ऐसी जगह चलना चाहिए जहाँ लोगों को आने-जाने की सुविधा हो, बड़ा रेलवे स्टेशन हो, और साथ ही धार्मिक स्थान भी हो। उन्होंने काफी सोच विचार कर मथुरा को पसंद किया और आप अक्टूबर १९५१ में मथुरा आ गए और डैमपियर नगर में एक किराये के मकान में रहने लगे। अब इस सत्संग का नाम हुआ रामाश्रम सत्संग, मथुरा। सत्संग का नाम गुरु महाराज ने अपने गुरु महाराज यानि दादा गुरु महाराज महात्मा श्री रामचंद्रजी महाराज के नाम पर रखा। 

मथुरा में साहित्य का प्रकाशन

यहाँ प्रेस लग चुका था, प्रकाशन की सब सुविधा थी और धार्मिक क्षेत्र भी था। यहाँ आते ही गुरु महाराज ने साधन प्रेस में पुस्तकों को प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया। ‘अलौकिक भक्तियोग', 'महात्मा जी की जीवनी', 'योग की नवीन साधना', 'शारीरिक और अध्यात्मिक ब्रह्मचर्य', 'मृत्यु और मृत्यु के पश्चात', 'साधना के अनुभव' पांच खंड (दो खंड छठवां और सातवाँ उन्होंने लिख रखा था जो उनके शरीर त्यागने के बाद प्रकाशित हुए) इत्यादि प्रकाशित किये।

सत्संग कार्यक्रम का निर्धारण

सत्संग का एक निश्चित कार्यक्रम निर्धारित करने तथा उसे एक स्वरुप देने का विचार उनके अंदर पहले से ही चल रहा था। अगस्त १९५३ के साधन के अंक में उन्होंने सत्संग कार्यक्रम का निर्धारण कर दिया। पहले गुरु स्तुति को रखा। उसके लिए उन्होंने अपने गुरु भाई महात्मा चिमन लाल जी फकीर की कविता के अंश चुने। गुरु स्तुति के बाद इश स्तुति रखा। इसके लिए उन्होंने पूज्य पंडित जी महाराज को एक कविता लिख कर भेजने को कहा जो वैसी ही होनी चाहिए जैसी जून १९५० में ऋषिकेश के रेती पर एक भक्त मण्डली को सामूहिक प्रार्थना करते हुए उन्होंने (पूज्य गुरुदेव ने)  सुनी थी। पूज्य पंडित जी महाराज ने जो इश स्तुति लिखी ( हे जगनायक विश्व विनायक ....) वह गुरु महाराज को पसंद आई। अंत का गीत उन्होंने पहले ही छांट कर रख लिया था। अतः सत्संग कार्यक्रम निर्धारित हो गया और उसे साधन के अगस्त १९५३ अंक में प्रकाशित कर दिया गया।


यहाँ यह बता देना जरूरी है कि पहले ध्यान से पूर्व, सूर, तुलसी, मीरा आदि भक्तों का कोई पद एक व्यक्ति कहता था। उसके पश्चात गुरु महाराज थोड़ा सा प्रवचन करके ध्यान करा देते थे। सामूहिक प्रार्थना का रिवाज़ १९५२ से चला।    

पूज्य गुरुदेव के पर्दा करने के बाद अब तक

पूज्य गुरुदेव के पर्दा करने के बाद परम पूज्य जिया माँ के संरक्षण में परम पूज्य पंडितजी महाराज, एवं परम पूज्य बड़े भैया जी, डॉ ब्रजेन्द्र कुमार साहब ने इस सत्संग को और भी फैलाया। जगद्जननी जिया माँ मौन रूप से अपने प्रेम और करुणा की वर्षा हम सब पर करती रहीं। उसके बाद परम पूज्य छोटे भैया जी, डॉ नरेन्द्र कुमार साहब और उनके पर्दा करने के बाद परम पूज्य मझले भैया जी, श्री हेमेन्द्र कुमार साहब ने सत्संग का दिशा निर्देशन किया। आज भी वही धार चली आ रही है। वही ज्ञान, वही आनंद, वही प्रेम बरस रहा है। परम पूज्य पंडित जी महाराज कहा करते थे गायें बादल जाती हैं पर दूध वही रहता है

***************

No comments:

Post a Comment