Saturday, 14 January 2012

अभ्यासियों के लिए अति महत्वपूर्ण बातें (विभिन्न स्रोतों से संकलित)

अभ्यासियों के लिए अति महत्वपूर्ण बातें  (विभिन्न स्रोतों से संकलित)


रामाश्रम सत्संग की साधना से 
शीघ्र एवं पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए अभ्यासियों को  निम्नलिखित बातों का पूरा ध्यान रखना आवश्यक है।

१.       प्रातः सायं गुरु महाराज के द्वारा बताई हुई ध्यान की क्रिया करना
२.       चिंतन करना
३.       नियमित साप्ताहिक सत्संग में शरीक होना
४.       भंडारों में शरीक होना
५.       तीन मास या उससे पहले गुरु दर्शन करने का प्रयास करना 
६.       स्वाध्याय करना
७.       सेवा
८.       भोजन
                
१.ध्यान

v  ध्यान की क्रिया जैसा गुरु अथवा सत्संग के आचार्य द्वारा बताया गया है ठीक वैसे ही किया जाना चाहिए। उसमे कोई फेर बदल नहीं किया जाना चाहिए। सुन सुना के या पढ़ पढ़ा के ध्यान नहीं करना चाहिए। गुरु की आज्ञानुसार ही चलना चाहिए। गुरु की बताई हुई क्रिया में अपनी तरफ से न कुछ घटाना न कुछ बढ़ाना चाहिए।

v  ध्यान चैतन्य (जिन्दा) का करना चाहिए। जड़ का ध्यान करने से जड़ता आती है। देखा भाला गुरु का ध्यान ठीक पडता है। फोटो या मूर्ति का ध्यान ठीक नहीं पड़ता।  

v  ध्यान नियमित रूप से बिना नागा किये हुए करना चाहिए।  एक दिन का छोड़ा हुआ अभ्यास इतना नीचे गिराता है और इतना हानि पहुंचाता है कि जिसकी पूर्ति कई दिनों में भी नहीं हो सकती है। पिछली कमाई सब बर्बाद हो जाती है।

v  ध्यान करने का सुबह शाम का समय निर्धारित कर लें। फिर पूरा प्रयास करें कि निर्धारित समय पर ही बैठ जायें।

v  ध्यान उतनी ही देर करो कि जितने समय तुमने अपने जिस्म और दिमाग से अंदाज़ा लगा के चुना है जिसमे दिमाग में थकावट न आये। शुरू में पांच मिनट से १५ मिनट और बाद को तीस मिनट का अभ्यास एक वक्त के लिए काफी होता है।  न तो अधिक करो न कम करो। ज्यादा देर ध्यान करने से उन्नति के बजाय साधक अवनति कर लेता है। इसका प्रभाव उसके सूक्ष्म व दिमाग शरीर पर ही नहीं बल्कि स्थूल शरीर पर भी आता है। वह शरीर कई रोगों में गिरफ्तार हो जाता है। गर्मी व खुश्की बढ़ जाने से दिमाग  फट जाते हैं और जान निकलने  का  अंदेशा भी होता है।

v  ध्यान करते वक्त शारीर में शक्ति का उतार होता है। गर्मी पैदा होती है। इसलिए ध्यान करने के थोड़ी देर बाद तक ठण्ड से बचना चाहिए। जैसे, ठंडी  पदार्थ का सेवन या ठन्डे वातावरण में थोड़ी देर बाद जाना चाहिए।

v  ध्यान का स्थान साफ सुथरा होना चाहिए। पवित्र होकर ध्यान करने बैठना चाहिए। आसन भी ठीक होना चाहिए। उनी के ऊपर सूती वस्त्र बिछा कर बैठना ठीक पड़ता ‍है। (ध्यान के समय विद्युत शक्ति का शारीर में उतार होता है। धरती में भी विद्युत शक्ति है। दोनों शक्तियों का आपस में टक्कर होने पर बहुत हानि हो सकती है)

v  रामाश्रम सत्संग का ध्यान साधक को द्रष्टा बनाता है। साधक को केवल द्रष्टा बनकर अपने हृदय क्षेत्र को गुरु के प्रकाश में देखते रहना चाहिए। कर्ता नहीं बनना चाहिए। कर्ता तो गुरु शक्ति है। इससे समय बर्बाद होने से बच जाता है। द्रष्टापन के बनाये रखने से प्रगति सुचारू होती रहती है।

v  जैसी भी दृश्य आये साधक का काम देखते रहना है। कोई स्थिति अच्छी या खराब नहीं होती। सब रास्ते के दृश्य हैं। जो यात्री देखता जाता है, वह मंजिल तक जल्दी पहुँच जाता है। जो किसी चीज़ में अटक जाता है वह मंजिल तक नहीं पहुँच पता है।

v  प्रकृति में ४-४ घंटे के लिए सत् रज और तम का धार प्रबल हो जाता है। सुबह ४ बजे से ८ बजे तक एवं शाम ४ बजे से ८ बजे तक सतोगुणी धार प्रबल रहता है। इस वक्त ध्यान करना सबसे श्रेष्ठ होता है।

v  मन के अंदर अनेकों प्रकार की शक्तियां हैं उनके द्वारा मनुष्य अद्भुत अद्भुत काम कर सकता है। साधारण दशा में वह बाहर फैली रहती है। कुछ अंदर ही दबी रहती है। इसलिए जीव अपने को असमर्थ समझता है। एकाग्र करने पर धीरे धीरे उनका विकास होता है। वह खुलती है। उसे उन शक्तियों पर अधिकार प्राप्त हो जाता है। ऐसे समयों पर जब कि शिष्य में शक्तियां उभरने की अवस्था आती है तब समर्थ गुरु उसकी आँखों पर पर्दा डाल देते हैं और उस स्थान से धक्का देकर आगे बढ़ा देते हैं। उसे खबर नहीं होने देते कि क्या सामर्थ्य आई और साधना के मार्ग में हम कहाँ पहुँच गए। इससे शिष्य का बहुत कल्याण होता है। वह गिरने से बच जाता है, मान प्रतिष्ठा के झंझट उसे नहीं लगते, गर्व नहीं आता और वह अति शीघ्र अपने ध्येय की ओर बढ़ जाता है। हमारे यहाँ की शैली ऐसी ही है। हमारे यहाँ अभ्यासी को खबर नहीं हो पाती कि वो कहाँ तक चढाई कर चुका है। आगे एक स्थान ऐसा आता है कि जहाँ पहुंचकर मन बदल जाता है। सिद्धियों से काम लेने की इच्छा नहीं रहती और एकदम ऊपर (परमात्मा) की ओर खिंच जाता है। इधर के खेल उसे झूठे थोथे दिखाई देने लगते हैं। उस समय आँखों से पर्दा हटा दिया जाता है और उसे दिखा दिया जाता है कि तुम किस मंजिल पर पहुँच गए। फिर वहाँ न गर्व सता सकता है न कोई संसारी प्रलोभन अपने मोह में डाल सकता है।  

v  पर ध्यान रखना चाहिए कि जो भी मिला है सब गुरु की शक्ति से मिला है, अपने पुरुषार्थ से कुछ नहीं मिला है। अतएव सब कुछ गुरु का ही समझाना चाहिए मिथ्या गर्व नहीं करना चाहिए।

२. चिंतन

              चिंतन उपासना का सबसे मुख्य साधन है। ध्यान नियत समय पर प्रातः सायं और रात को सोते समय किया जा सकता है। मगर चिंतन हर समय सोते जागते उठते बैठते और चलते फिरते एवं काम काज करते भी हो सकता है। हर समय गुरु की याद रखना होता है। उसकी सूरत हर समय उसकी आँखों में घूमती रहती है, खाते-पीते, सोते-जागते, चलते-फिरते, उसके सम्मुख ही नाचा करती है। उसी तरह गुरु की प्रेममयी मूर्ति उसके आँखों से ओझल न होने पावे। हर वक्त वह पास ही दिखाई दे, समीप ही रहें ऐसी अपनी सुरती को बना लेने से थोड़े ही दिनों में चिंतन या भृंगी साधन की क्रिया पूरी हो जाती है। चिंतन के करने से बहुत ज्यादा और हर समय करंट हम ले सकते हैं और हम उतने ही शक्तिवान बहुत जल्दी बन सकते हैं कि जितने गुरु। जो जैसा ख्याल रखता है वैसा ही बन जाता है। 

३.साप्ताहिक सत्संग

साप्ताहिक सत्संगों की व्यवस्था पूज्य गुरुदेव के व्यवहारिक दर्शन की देन है। अपने गांव, मोहल्ले, या शहर के सभी सत्संगी भाई एक सर्वसम्मत स्थान व समय पर सब मिलकर सप्ताह में एक बार एक साथ सत्संग करते हैं। एक साथ की गयी सबकी सामूहिक विनय गुरु शक्ति को द्रवित कर देती है। परिणामतः सामूहिक सत्संग का ध्यान व आनंद और ही अनुभव होता है। साप्ताहिक संत्संगों में प्रवचन न हो। एक दो भजन हो, फिर सत्संग की प्रार्थना सहित गुरु ध्यान हो। ध्यान के पश्चात अंत की विनय हो फिर पूर्व महापुरुषों की कोई पुस्तक दो चार पेज पढ़ी जाये, प्रसाद अर्पण हो, फिर एक दो विनय के भावपूर्ण भजन हों। बस।

हम सप्ताह में सातों दिन सामूहिक सत्संग रखें यह ठीक नहीं है। इससे उसकी महत्ता कम होती है व प्रभाव भी उतना नहीं होता। दूसरी बात यह भी है कि हमारा सत्संग गृहस्थों का सत्संग है, सब लोग हमेशा सब जगह नहीं पहुँच सकते। बस दो-चार लोग ही पहुंचे और हम उसे साप्ताहिक सत्संग कह दें, ये उचित नहीं लगता।

देखने में आया है कि जो लाभ साप्ताहिक सत्संगों से होने चाहिए, सत्संगियों को मिल नहीं पाता। ऐसा इसलिए है कि सत्संग प्रारंभ होने के पहले लोग आपस में तरह तरह की बातें करते रहते हैं व पूजा के बाद भी होना यह चाहिए कि घर से चलते समय से गुरु चिंतन चलता रहे व सत्संग के लिए अपने अंतः करण को तैयार करते रहे। भाव यह रहे कि हम पूज्य गुरुदेव के सामने उनकी कृपा प्राप्त करने जा रहे हैं।

सामूहिक सत्संग में लक्ष्य मन को निरोध अवस्था मात्र तक लाना नहीं है अपितु प्रेम गंगा में गुरु के प्रकाश में उसे शुद्ध और निर्मल बनाना है। तभी माया के बंधन कटते हैं और साधक मोक्ष का अधिकारी बनता है।

४.भंडारा

       श्री गुरु महाराज ने अध्यात्मिक आयोजनों को भंडारा नाम दिया है। इन आयोजनों में गुरु अपना भंडार जन साधारण के लिए खोल देते हैं। इन भंडारों में पात्र-अपात्र का भी विचार नहीं किया जाता। जैसे पानी बरसता है, वह सब पर समान रूप से ही बरसता है। चाहे धनवान हो या निर्धन वह कोई भेद नहीं करता। इसी प्रकार गुरु अपना भंडार खोल देते हैं सभी के लिए। पूज्य विरल जी कहा करते थे मांगो मत खींचो। मांगना तो वहाँ होता है जहाँ वस्तु न हो या कोई प्रतिबन्ध हो। लेकिन भंडारों में तो यह बरस रही है। अतः आवश्यकता है खींचने की। इन भंडारों में पांच बैठकें होती है। इन पांच बैठकों की क्रम पांच कोशों पर आधारित है --- अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनंदमय कोष। पहली ही बैठक में अन्नमय कोष पार हो जाता है। दूसरी बैठक में प्राणमय, तीसरी में मनोमय, चौथी में विज्ञानमय, तथा अंतिम बैठक में जीव आनंदमय कोष पार कर पूर्ण गुरु से मिलकर पूर्ण हो जाता है। यह केवल कल्पना नहीं बल्कि यथार्थ है। इसके लिए आवश्यक हो जाता है कि भंडारे का पूर्णरूप से  सेवन किया जाए। अक्सर लोग भंडारों में आते हैं तो पहले से ही प्रोग्राम प्रमुख हो जाता है। ध्यान में बैठे हैं लेकिन विचार यही चल रहा है कि ये मीटिंग जल्दी समाप्त हो जाए, आगरा जाना है। अतः जैसा विचार वैसी ही प्राप्ति। आवश्यक है हम भंडारों में जाकर उसी विचार धारा में लय हो जायें। हर समय भंडारा की धारा में गोता लगाते रहें। सत्संग प्रमुख हो जाए तो आप उस आनंद का स्वयं ही अनुभव करेंगे।

५.गुरु दर्शन

अध्यात्म की चढाई पर्वत शिखर की तरह है। जीव नीचे खड़ा है, गुरु की आत्म शक्ति की कशिश से वह उपर चढ़ता है। जब कशिश ढीली हो जाती है तो या तो नीचे खिसकेगा या अगर वह अपने को साध सका तो वहीँ रुका रहेगा। उपर तो किसी हालत में न जा सकेगा। इसलिए साधक का फर्ज है कि जल्दी-जल्दी गुरु के समीप पहुंचकर उसकी आकर्षण शक्ति को अपने अंदर भरता रहे। जब जरा अपने अंदर कमजोरी देखे, जब अपना पांव लड़खड़ाता दिखाई दे, भाग के गुरु की सेवा में जाए और उसकी शक्तियों को जितनी सामर्थ्य रखता हो खींच के अपने में भरे।

गुरु के सम्मुख सारी तवज्जह गुरु की ओर ही रहनी चाहिए ताकि उससे सम्बन्ध मजबूत हो जाए और उसके जरिये (द्वारा) तुम्हारी निस्बत परमात्मा तक पहुँच जाए। गुरु जब बात करने की आज्ञा दें  बात करो और जब वह चुप हों तो तुम भी चुपचाप ख़ामोशी से बैठे रहो। परन्तु चित्त उधर ही रखो। ख़ामोशी बात करने से अच्छी होती है इसमें अधिक लाभ मिलता है। बात करते वक्त परमात्मा से कनेक्शन टूट सकता है और ख़ामोशी के वक्त और भी ज्यादा मजबूत होती है। अगर वह किसी दूसरे काम में लगे हों तो यह मत सोचो कि उनका ध्यान तुम्हारी तरफ नहीं है। शक्तिशाली पुरुष एक ही समय में कई काम कर सकते हैं। वह अपनी आकर्षण शक्ति तुम्हें भी दे रहें होंगे और दूसरी ओर भी अपने काम में लगे होंगे।

       जब तक गुरु-शिष्य में घनिष्ठ प्रेम नहीं होता तब तक काम पूरा नहीं होता। शिष्य को चाहे सेवा से चाहे और किसी दूसरे ढंग से उसको अपनी ओर खींच लेना चाहिए। उसके दिल में अपनी मुहब्बत पैदा कर देनी चाहिए। तभी साधना के रहस्य खुलते हैं और सूक्ष्म मंडलों में पहुँच हो पाती है वर्ना बीच में ही लटके रह जाते हैं। किसी शक्तिशाली की सहायता लिए बिना प्रकृति की तीव्र धार से टक्कर लेना और उसे चीरते हुए ध्रुव तक पहुँच जाना खेल नहीं है। यह बिना समर्थ गुरु की सहायता के कभी संभव नहीं है।

६.स्वाध्याय

स्वाध्याय दो होते हैं  एक तो अच्छे ग्रंथों को पढ़ना और दूसरा अपने का अध्ययन करना। अपने का अध्ययन करना अति आवश्यक है। जब तक आप अपना अध्ययन नहीं करेंगे पवित्रता नहीं आवेगी। हम अपने अध्ययन में आत्म निरिक्षण करें  मैं कहाँ पर हूँ, विचारों में कोई फर्क आया या नहीं, स्वभाव सुन्दर हो रहा है या नहीं।  साधना करते करते ५०-६० वर्ष हो गए  गिनने से कोई लाभ नहीं होगा। आत्म निरिक्षण में ढील न दें  बस आपके सारे ही प्रश्नों का समाधान मिल जायेगा। जन जन को व समग्र विश्व को प्यार स्नेह देकर सबके साथ शांति से रहने की शक्ति व समझ भी मिल जावेगी। रामाश्रम सत्संग की साधना सरल है  सहज है, साथ ही अमोघ भी। श्री गुरु महाराज जी की साधना अपनाएं और इस सबका अपने जीवन में प्रत्यक्ष प्रभाव देखें।

उसके (भगवन के ) दया पात्र बनने के लिए बाहरी और अंतरीय दोनों शुद्धि की जरूरत है। दूसरों के प्रति हमारा व्यवहार अच्छा और पवित्र हो, धर्मशास्त्र के अनुकूल हमारा आचरण हो, सच्चाई, ईमानदारी, दया और सेवा का स्वभाव हमारे कर्मों में होने चाहिए। स्त्री, बच्चे, कुटुम्बी, पडोसी, ही नहीं बल्कि मनुष्य मात्र के लिए हमें यह देखना चाहिए कि उनका क्या हक है और वह हमसे ठीक तरीके से पहुँचता है या नहीं। व्यापार, नौकरी, अतिथि सत्कार, दुखियों की मदद, अनाथ और विधवाओं की सहायता में हम धर्म के अनुसार चल रहे है या नहीं। झूठ, मक्कारी, दगाबाजी, चालाकी, चोरी, पर निंदा इत्यादि त्याज्य कर्म तो हम से सरजद नहीं हो जाते। यह सब बाहरी बातें हैं जिन पर चलने से भगवन प्रसन्न होते है और अभ्यास में उन्नति होती है।

कुछ ऐसी बातें हैं जो अंतर की है, उन्हें भी समझ लेना चाहिए ताकि साधना में आगे बढ़ सको। वह हैं इश्वर में पूर्ण श्रद्धा होना, उससे हर समय डरते रहना ताकि कोई बुरा काम न हो। उसकी याद किसी समय भी न भूले इसकी कोशिश करना। दुनिया का लगाव दिल से कम होना, भगवन ने जितना दिया है और जैसे वह रखना चाहता है, उसमे राजी रहना, अधिक तृष्णा न करना और जो कुछ उद्योग करने पर मिला है उसी में संतोष रखना। क्रोध को रोकना, अपने को बड़ा न समझना दूसरों की हकीर (अत्यंत क्षुद्र) न जानना, दिल में किसी से द्वेष न रखना, संध्या और भजन के समय दिल को हाजिर रखना, उसको भटकने न देना, धर्म के कामों में रूचि होना, इत्यादि सब ऐसी बातें हैं जिनकी सालिक या पन्थाई के लिए बहुत जरुरत है, इसके बिना साधना पूरी नहीं होती।


७.सेवा

भक्ति से भगवान जितने जल्दी रीझते हैं, उतने किसी कर्म से नहीं। भक्ति को ही दूसरे शब्दों में सेवा कहते हैं। भक्ति का अर्थ ही सेवा है। फल की आसक्ति त्याग के जो सेवा की जाती है वह प्रभु को अवश्य ही खींच लाती है, इसमें सन्देह नहीं है। मुमुक्षु को बेगरज हो के दूसरों की सेवा करनी चाहिए, इससे इश्वर बड़ी जल्दी दया करते हैं। बदला न चाहे, प्रशंसा और प्रतिष्ठा की परवाह न करे, कर्तव्य समझ के सेवा करता जाए, सबको ईश्वर रुप समझे इससे नजदीक का रास्ता दूसरा नहीं है। जो काम हम ऐसे इरादे से करें कि उसमें चाहे हमको कष्ट हो, हमारी हानि हो, पर जिनको हम अपना नहीं समझ रहे हैं उन्हें सुख और हर्ष मिले यह पर सेवा है। पराई सेवा करने वाले को उसी वक्त एक प्रकार की खुशी मिलती है। जिस काम में खुशी मिले यही आत्मा की सेवा या आत्म भक्ति है। शिष्य जब गुरु की निष्काम सेवा करने को तत्पर हो जाता है, गुरु के कष्टों को वह अपना समझने लगता है और बिना बदला चाहे तन मन से गुरु की सेवा में जुट जाता है, तभी गुरु की दया उमड़ती है और उसे उठा के कहीं का कहीं पहुँचा देती है। सेवा भाव से, आज्ञा में चलने से, किसी प्रकार भी गुरु को अपना बना लेना पड़ता है, तभी परमार्थ के गुप्त रहस्यों का पता मिल पाता है, तभी कल्याण का पथ शिष्य के लिये खुलता है। जितना जितना शिष्य उसका होता जाता है, उतना उतना ही उसकी आकर्षण शक्ति के सहारे वह उपर को आत्मा की ओर खिंचता जाता है, अपनी आत्मा को विस्तृत बनाता है। गुरु की बगैर खिदमत किए आज तक न तो किसी ने कुछ ले पाया है और न ले सकता है। निष्काम सेवा से जो प्रेम उत्पन्न होता है वही आगे चलके इतनी घनिष्टता कर देता है कि दोनों गुरु शिष्य एक जान दो कालिब हो जाते हैं – या तो गुरु शिष्य में प्रवेश हो उसमें समा जाता है या शिष्य को अपनी आकर्षण शक्ति से खींच के अपने अन्दर ले लेता है । उस समय शिष्य का अहं गुरु में लीन हो जाता है, शिष्य अपने को गुरु रुप से ही देखने लगता है शिष्य नही रहता, केवल गुरु ही गुरु रहता जाता है। शिष्य के अन्दर गुरु की सारी शक्तियाँ बिना परिश्रम उतर आती है, उसके सारे कँवल खुल जाते हैं, उसका अज्ञान अन्धकार दूर हो जाता है और ज्ञान का सूर्य उसके अन्दर देदीप्यमान होने लगता है। कुछ अंतर नहीं रहता, शिष्य गुरु का रूप ही हो जाता है और आत्ममण्डल के जिस स्थान पर गुरु की बैठक होती है, वह एकदम खिंच के वहीं जा पहुँचता है। अगर गुरु आत्मदेश का निवासी है, वह हरदम परमात्मा में लीन रहने वाला है, उसके दर्शन करने वाला है, तो शिष्य भी उसी क्षण उसी स्थान में जा पहुंचता है और दर्शन करने लगता है। यही अंतिम पद मुक्ति है। जो ईश्वर में लय हो गया फिर उसके लिए और क्या बाकी रहा। यही सब कुछ है जो गुरु की भक्ति से सहज ही में प्राप्त हो गया। इसलिए शिष्य को सेवा मुख्य है ।
८.भोजन

भोजन से हमारे शरीर, मन एवं बुद्धि तीनों का निर्माण होता है। अतएव यह आवश्यक है कि हम अपने मन एवं बुद्धि को स्वच्छ एवं निर्मल रखने हेतु भोजन पर ध्यान दें। जहाँ एक ओर हम ध्यान, सत्संग आदि के द्वारा अपने मन एवं बुद्धि को स्वच्छ बनाने की कोशिश कर रहे हैं वहीँ अगर भोजन के द्वारा हम इसे गन्दा करते रहें तो ध्यान सत्संग आदि का हमें लाभ ठीक ठीक नहीं मिल पायेगा। भोजन में तीन बातों का ध्यान मुख्य रूप से रखना चाहिए। पहली बात कि मेहनत की कमाई का धान्य हो, दूसरी बात कि बनाने एवं परोसने वाला शुद्ध विचारों का हो एवं तीसरी बात कि भोजन ग्रहण करते वक्त विचार इश्वर या गुरु की तरफ रहे। तीनों बातों का पालन करने पर साधक देखेंगे कि उनका मन एवं बुद्धि बहुत जल्दी शुद्ध एवं शांत हो कर इश्वर या गुरु के प्रेम में रंगने लगेगा। निरामिष भोजन से स्थूलता आती है एवं सूक्ष्म विचार एवं गूढ़ रहस्य की बातें समझ में नहीं आती। नशीले पदार्थों से तमोगुण बढ़ता है एवं वे सतोगुणी बनने में बाधा उत्पन्न करते हैं। अतएव प्रगति करने के लिए आवश्यक है कि साधक ऐसे वस्तुओं से दूर रहें।



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