भाग्य और भक्ति
महात्मा जगन्नाथ दास जी ने पूरी की यात्रा की। उन दिनों आजकल की सी सवारियों का प्रबंध नहीं था। वृद्ध थे, किसी तरह गिरते पड़ते, चलते फिरते पूरी पहुंचे। जलवायु बदला, भोजन का भी ठीक प्रबंध नहीं हो सका, अजीर्ण रोग ने आ घेरा। जहाँ तक हो सका सावधानी करते रहे पर साधू का कौन ठौर ठिकाना? जो मिला उससे उदर पूर्ति कर ली। जिसने आदर सहित बुलाया उसी की भिक्षा ग्रहण कर ली। कभी मंदिर से प्रसाद पा लिया। कुछ दिन पीछे ही दस्त लगने लगे। जब तक साधारण स्थिति रही सहन करते रहे। पीछे रोग बढ़ जाने पर समुद्र के किनारे चले गए और वहीँ एकांत में पड़े रहे।
दस्तों में कमजोरी आती ही है। बूढ़े थे बेहोश हो गए। कपड़ों में ही मल-मूत्र करने लगे। मखियाँ भिनकने लगीं। जो आता दूर से ही देखकर लौट जाता। कोई पूछने वाला नहीं था कि यह मरने वाला कौन है, कहाँ से आया है, इसको औषधि की भी आवश्यकता है वा नहीं।
प्रभु को दया आई। वह दस वर्ष के बालक का रूप धारण कर अपने भक्त के समीप पहुंचे। उसके कपड़े बदले। उसे अपने कर कमलों से सौच कराया। मल मूत्र के वस्त्रों को ले जाकर समुद्र में धोया। धूप में सुखाया। जब तक वह कपड़े भी खराब हो गए। अब इन्हें फिर बदला और धोया सुखाया। कई दिन व्यतीत हो गए। जगन्नाथ दास को कुछ खबर नहीं कि मेरा सेवा कौन कर रहा है। वह नहीं जानते कि इस संसार रूपी भयानक जंगल में उसकी भी कोई खबर लेने वाला रहता है। समय पर वह उसकी सहायता करेगा। उसकी रक्षा ही नहीं, सेवा तक के लिए वह हर समय तैयार रहता है। इसलिए वह बेचारे अपनी तकदीर से खेल रहे थे। भाग्य ने पलटा खाया। जगन्नाथ जी को कुछ होश आया। आँख खोली। देखा, एक बालक सब तरह की सेवा कर रहा है। उठने बोलने की सामर्थ्य नहीं थी, चुप रह गए। मन ही मन में उसकी प्रशंसा करने लगे और उसे धन्यवाद देने लगे। दो तीन दिन और ऐसे ही कटे। अब कुछ बल आया। उठे, सहारे से घिसटते जल तक पहुंचे। स्नान किया ।शुद्ध धुले हुए वस्त्र, जो लड़के ने पहले से ही तैयार कर रखे थे, बदले। भजन और नित्य कर्म की सामर्थ्य नहीं रही। एक शुद्ध स्थान पर सघन वृक्ष तले आकर लेट गए। बच्चा कहीं से जलपान ले आया। वह खाया और आराम करने लगे। ऐसे ही कई और दिन बीते। अब जगन्नाथ जी का स्वास्थ्य ठीक हो चला है। वह चलने फिरने लगे हैं. दस्त बंद है, भूख भी लगने लगी है। कुछ खा भी लेते हैं। पर अभी पूरे निरोग नहीं हुए। निर्बलता बाकी है। लेकिन संध्या नियम उनका शुरू हो गया है। प्रातः काल का समय था। भक्त जी स्नान कर पूजा करने बैठे थे। ध्यान में डूब गए, मस्ती छा गई, तन बदन भूल गए, सुधि बुधि जाती रही। उस दशा में बालक के शरीर में उनको भगवान के रूप के दर्शन हुए। घबरा गए। आँख खोल दी. रोने लगे और जल्दी से उठ के अपने सेवक बालक के चरणों में लोट गए। क्षमा याचना करने लगे। तरह तरह की विनती करने लगे --- प्रभु इस अधम के लिए आप ने इतना कष्ट उठाया। माता की तरह मल मूत्र साफ किये। इस पापी को मर जाने देते। इस अपराधी को दुःख झेलने देते। यह दुष्ट इसी योग्य था कि इसे दंड मिलता। आपने क्यों इतनी दया की? क्यों इसकी खबर ली? अब इसका प्रायश्चित मैं कैसे करूँ? इसका बदला मैं कैसे चुकाऊँ? किन शब्दों में आपकी विनती करूँ? मैं कर्त्तव्यविमूढ़ हो रहा हूँ। क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा। हे जगतपति, क्षमा करो, क्षमा करो !!!
का मुख ले विनती करूँ, लाज आवत है मोहि ।
तुम देखत अवगुण किये, कैसे भाऊँ तोही ।।
हे हरी, आप सर्वशक्तिमान हैं, सर्व सामर्थ्यवान हैं, सर्वोपरि हैं। आप चाहते तो दूर रहते हुए ही इस व्यथा को दूर कर सकते थे। आप स्वर्ग में बैठे हुए ही एक दृष्टि से इस विपदा को काट सकते थे। यहाँ क्यों पधारे? क्यों इस दास के लिए इतनी चिंता की? प्रभु बोले -- हम भक्तन के भक्त हमारे। प्यारे जगन्नाथ, मुझसे भक्तों के दुःख नहीं देखे जाते। मुझसे उनकी विपत्तियां नहीं सही जाती। मैं भक्तों को सुख देने के लिए सर्वदा तैयार रहता हूँ। मैं उनके लिए सब कुछ कर सकता हूँ। इसमें मुझको आनंद आता है। ऐसा करते हुए मुझे खुशी होती है। मैं भक्तों से दूर किसी और स्थान पर नहीं रहता। मैं सदा उनके समीप ही रहता हूँ, उनके स्थान में ही चक्कर लगाया करता हूँ। तेरा कष्ट मुझसे सहन नहीं हो सका। मैंने प्रगट हो तुझे आराम पहुँचाने की कोशिश की। इसमें कोई बड़ा काम मैंने नहीं किया, केवल अपने कर्त्तव्य का पालन किया है। प्रेम सब कुछ करा लेता है। तू मुझे प्यारा है, इसलिए मैंने ऐसा किया है। इसके लिए तू किसी प्रकार की चिंता मत कर, हृदय में क्षोभित मत हो।
हाँ, एक बात जो तूने कही कि वहाँ बैठे हुए ही इस रोग को दूर कर सकते थे, सो हे भ्राता, यह मेरे अधिकार से बाहर की बात है। प्रारब्ध का भोग अवश्य भोगना पड़ता है। कर्म बिना भोगे नहीं कटता, यह प्रकृति का नियम है। मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता। प्राणी जो कुछ सुख दुःख उठाता है, कर्मानुसार ही उसे मिलता है। जगत में कर्म ही प्रधान है। हाँ, जो भजन करने वाले हैं, जो निरंतर सच्चे हृदय से मेरी भक्ति में रत रहने वाले हैं, उनके कष्टों को मैं कुछ हल्का और सुलभ कर देता हूँ। कठिन विपत्ति के समय अपने सेवकों को मैं सहायता कर देता हूँ। यही मेरी दया है, कर्मों को बिना भोगे आत्मा शुद्ध नहीं होता। संस्कार आत्मा के ऊपर लिपटे रहते हैं और पर्दा बन के प्राणी को मुझसे दूर किये रहते हैं। भोग से यह आवरण हट जाते हैं और मैं उन्हें समीप ही दिखाई देने लगता हूँ। फिर ऐसा निर्मल चित्त वाले भक्त में और मुझमें भेद नहीं रहता। वह मेरे हो जाते हैं और मैं उनका हो जाता हूँ। ऐसा उपदेश दे भगवान अंतर्ध्यान हो गए।
आगे महात्मा जगन्नाथ जी का जीवन कैसे कटा, कहाँ रहे, इससे ना कोई संबंध है और ना हमको मालूम है। पर यह कथा तीन बातों का सबक हमें दे रही है। कर्म के भोग को परमात्मा भी नहीं टाल सकता। वह भोग कर ही कट सकता है। उसका भोगना अपने लिए ही लाभदायक होता है। बिना भोगे न तो आवरण हटते हैं, न संस्कार क्षय होते हैं, और न हृदय शुद्ध व निर्मल बनता है। भोग ही का नाम मानसिक तप है। शरीर के तापों से मानसिक तापों का दर्जा ऊँचा है। मन की यह तपन ही उसे कोमल बनाती है, उसमें नरमी और गुदगुदाहट उत्पन्न करती है। कठोर हृदय भजन के योग्य नहीं होता। नरम दिल आदमी ही इस दौलत का हक़दार होता है। रोग और दरिद्रता भक्त लोग अच्छी समझते हैं। इनसे नम्रता आती है, अहंकार टूटता है, बुद्धि सात्विकी बनती है, और भक्त ऊपर उठ जाता है। यह एक बात हुई।
अब दूसरी सुनो। मूर्ख और दुष्ट प्रकृति के मनुष्य विपत्ति के समय ईश्वर को कोसते हैं, उसे गलियां देते हैं, पर यह नहीं सोचते कि यह उन्हीं के किए हुए कर्मों का फल उन्हें मिल रहा है। ईश्वर ने तुम्हारे लिये क्या किया? ईश्वर तो तुम्हें सुख में रखना चाहता था, परन्तु तुमने अपने आप अपने लिये कुआँ खोदा और उसमें गिर पड़े। इसमें दूसरे को दोष क्यों देते हो? अपनी मूर्खता पर पछताओ, आगे उसे दूर करने का प्रयत्न करो, सदाचारी जीवन बनाओ, सत्कर्मी बनो, निषेध कर्मों को त्याग दो, राग-द्वेष को दूर हटा कर सबके साथ प्रेम का बर्ताव करो। देखो, तुम सुखी रहते हो या नहीं। बैर, झूठ, परनिंदा, चोरी, दगा, व्यभिचार, सूद, रिश्वत, इत्यादि ऐसे अवगुण हैं कि जिस मनुष्य में इनमें से एक भी हो वह कभी चैन से जीवन नहीं रख सकता। वह कभी विपदाओं से नहीं बच सकता। सुखी और शांत जीवन बनाने के लिये ऐसी बातें त्यागने की अत्यंत आवश्यकता है। लोग पैसा कमाने के लिये ऐसे काम करते हैं पर आँख खोल के देखो, ऐसा धन विपत्तियों को अपने साथ घर में लाता है और ऐसा कमाने वाले को आराम से नहीं रहने देता। कभी रोगों ने आ दबोचा, कभी किसी आत्मज की मृत्यु हो गई, कभी मुकदमा लग गया, अथवा और कोई संकट आ गया। इसी खींचातानी में ऐसों की जिंदगी कटती है। इसमें परमात्मा का क्या अपराध हुआ कि जिसके सिर दोष मढते हो? अपनी ओर देखो और सुख के साधन पकड़ो।
अब तीसरी ओर आओ। ऐसी बातें कई तार्किक कहने लगते हैं कि जब कर्म का फल हमें भोगना ही है तो भजन से क्या लाभ? क्यों भजन और पूजा में समय नष्ट करें? वृथा क्यों परिश्रम उठाएं? ईश्वर हमें क्या दे देगा? हम जैसा करेंगे वैसा भोगेंगे। इसका समाधान भी इस कथा में हुआ है। वह यह है कि भोग तो आयेगा और वह भोगने से ही कटेगा, पर जो भजन करने वाले हैं, भगवान के सच्चे भक्तों में हैं, और साथ ही शुद्ध चरित्र और कोमल स्वभाव हैं, उन्हें कठिन विपत्ति के समय एक गुप्त सहायता ऐसी मिलती है कि जिससे वह कष्ट तीव्र और भारी न रह के सूक्ष्म और हल्का हो जाता है। उस मनुष्य के अंदर एक ऐसी शक्ति का सञ्चालन रहता है कि जो उसे शांत और प्रसन्न रखती है। इस आनंद में कठिनाई आती है और चली जाती है। उसे कोई विशेष अनुभव भी नहीं होने पाता बस, इतना ही भजन का प्रताप है। और भजन करने वालों और साधारण लोगों में यही भेद है।
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१. ब्लॉगर के तरफ से नोट: (यह लेख अमूल्य निधि, खंड १ से लिया गया है। उसका शीर्षक है “ईश्वर भी कुछ न कर सका”। ज्ञात हो कि अमूल्य निधि हमारे परम पूज्य श्री गुरु महाराज के लेखों एवं प्रवचनों का संकलन है जिसे हमारे परम आदरणीय ब्रह्मलीन श्री हरिश्चंद्र प्रसाद जी ने हमारे एवं आने वाली पीढ़ियों के लिये हम पर अत्यंत कृपा कर इकठ्ठा कर प्रकाशित किया। उनकी इस कृपा के लिये उनके चरणों में हमारा कोटिशः नमन है।)
२. कई भक्तों एवं संतों ने गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊँचा रक्खा है। ऐसा सुना और पढ़ा है और हम आप में कईयों ने देखा भी होगा कि जिस शिष्य पर गुरु की दया उमड़ती है, उसके कठिन भोगों को, जो उसे अत्यंत कष्ट देने वाले हैं, अथवा जिनके कारण उसकी अध्यात्मिक प्रगति रुक गई है, गुरु अपने ऊपर खींच लेते हैं और उसका खुद भुगतान करते हैं। जीव के लिये जो भगवान भी नहीं कर सकते, वह गुरु करते हैं। ऐसी दया, ऐसी करुणा करने वाला गुरु के अलावा दूसरा कोई नहीं हो सकता है। इसी कारण गुरु की महिमा अपरम्पार कही गई है)
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