Saturday, 14 January 2012

रामाश्रम सत्संग, मथुरा की साधना शैली (परम पूज्य श्री गुरुदेव के शब्दों में)

रामाश्रम सत्संग, मथुरा की साधना शैली 
(परम पूज्य श्री गुरुदेव के शब्दों में)

रामाश्रम सत्संग की शैली अत्यंत ही सहज एवं सुगम है जिसमे न तो घर बार छोड़ने की आवश्यकता है, न अपने कारोबार त्यागने की जरुरत है। निर्बल और सबल, वृद्ध और युवा, स्त्री और पुरुष, विद्वान और कुपढ, गृहस्थ और विरक्त, उंच और नीच जाति -- सभी इसको बड़ी आसानी से कर सकते हैं । धर्म और मजहब भी इसमें बाधा नहीं डालती क्योंकि जहाँ मजहब की सीमा समाप्त होती है वहां से आगे इसका आरंभ होता है । साकार उपासक, निराकार उपासक, द्वैतवादी, अद्वैतवादी, आत्मवादी (जैन, बौद्ध) और ईश्वरवादी, वैष्णव और आर्य समाजी, शिव उपासक और शक्ति उपासक, कृष्ण उपासक व राम उपासक, मुसलमान और ईसाई इत्यादि, सबके लिए एक जैसा स्थान है । सभी अपने अपने धर्मों के अनुसार अपना अपना काम करते रहें और उसी के साथ साथ थोरी देर इस अभ्यास को भी करते जाएँ और देखें कि उसी से उनके भजन में अभ्यास करने के दो-चार दिन बाद ही कितना रस उनको मिलता है, कितने आनंद का अनुभव होता है । यह सब मन की एकाग्रता का तमाशा है जो प्रथम दिवस से ही साधक को आने लगती है । जिस मन को वश में लाने के लिए, जिस मन को एक ही लक्ष्य पर साधने के लिए वर्षों परिश्रम करने पर भी सफलता नहीं मिलती, उसकी झलक पहले ही दिन से यहाँ मिलने लगती है और आगे अभ्यास से वह दिन प्रतिदिन बढती जाती है और आगे समाधि में परिवर्तित हो जाती है, दर्शन करा देती है ।

अभ्यास के लिए पन्द्रह या बीस मिनट सुबह व शाम देने से वो सारी अवस्थाएं साधक बड़ी जल्दी प्राप्त कर लेता है जो कठिन तप व कठिन परिश्रम करने वालों को वर्षों में भी नहीं मिल पाती। गृहस्थी भोगता हुआ भी मनुष्य उन पर चल के अतिशीघ्र दर्शन का अधिकारी अपने को बना लेता है, आत्म देश तक पहुँच साक्षात्कार कर लेता है। यह प्रवृत्ति  में निवृत्ति एवं निवृत्ति में प्रवृत्ति का मार्ग है।

इसमें न आसन है, न प्राणायाम है, न जप है और न तप है, न शब्द योग है न राजयोग है और न हठयोग है। भक्ति मार्गी भी इस पर चल सकता है, योगी व ज्ञानी भी इसको अपना सकता है। इसमें किसी के विश्वास को धक्का नहीं पहुँचाया जाता, उसमे ही उसे आगे बढ़ा दिया जाता है ।

देश काल और परिस्थिति को देखते हुए परम पूज्य दादा गुरु महाराज (श्री महात्मा रामचन्द्रजी) ने इस युग के लिए योग की उन पुरानी रीतियों में से तरमीम करके उन्हें अत्यंत सरल बनाके, लाभ देख के, और सैकड़ों आदमियों पर अपने इस नवीन मार्ग का अनुभव करके इसको प्रचलित किया । यह नवीन शैली कर्म, भक्ति और ज्ञान की एक मिलौनी है ।

यह सभी कहते चले आ रहे हैं कि इश्वर का निवास मनुष्य के हृदय में है। वह बाहर भी है परन्तु यह समष्टि इश्वर इतना बड़ा है कि मनुष्य की पकड़ में नहीं आ सकता। इसलिए शास्त्रों ने यह शिक्षा दी है कि उसे अपने अंदर ही खोजो। जो तुम्हारे अत्यंत समीप और छोटी शक्ल में है, उसे ही पकड़ने की कोशिश करो। बात ठीक है। हम जब ऐसा करने को तैयार होते हैं, तो पहली मुठभेर हमारी मन से होती है। इस मन रूपी भौरों की आदत कुछ ऐसी बन गयी है कि वह अपने घर में बैठना ही नहीं पसंद करता, सदैव बाहर को भागता है और विषय वासना रूपी कलियों का रस लेने को हर समय लालायित रहता है। इसके स्वभाव में  चंचलता इतनी आ गयी है कि क्षण मात्र को भी एक स्थान पर नहीं टिकता। अभी एक फूल पर बैठा दिखाई दे रहा था, उसे छोड़ झट दूसरे पर जा पहुंचा, फिर तीसरे को पकड़ा, इत्यादि। इसके इस चंचल और बहिर्मुखी स्वभाव को छुड़ाना और उसे अंतर्मुखी बनाना यह इस योग का पहला काम होता है।

बस इतने ही काम के लिए मनुष्य न जाने क्या-क्या काम करता है। परिवार को त्याग पर्वतों की गुफाओं में जाकर रहता है, कठिन-कठिन तप करता है, उपवास करके शरीर को सुखाता है, आसन और प्राणायाम में परिश्रम करता है इत्यादि पर यह हाथ नहीं आता। इस पर अधिकार नहीं हो पाता।

यह काम हमारे यहाँ इतनी सुगमता से हो जाता है कि जिसको सुनकर लोगों को आश्चर्य हो सकता है। प्रथम बैठक से ही साधक यह अनुभव करने लगता है कि उनका मन किसी शक्ति द्वारा जकड़ दिया गया है, उसका वेग और उसकी चंचलता नष्ट हो गयी है और वह अपने कार्य में कोई विघ्न नहीं डाल रहा है।  नित्य-प्रति के अभ्यास से यह अवस्था और बढती जाती है और थोड़े ही काल में वह समाधि का आनंद लूटने लगता है।

इस साधन के लिए जिज्ञासु को दो एक बेर गुरु या शिक्षक के सम्मुख बैठ के अपनी क्रिया करनी होती है। गुरु अपनी आत्म शक्ति शिष्य में प्रवेश करता है और अपने उसी आत्मबल से शिष्य को सहायता पहुंचा के उसके चंचल मन को स्थिर कर देता है। आगे इसी बताई हुई क्रिया द्वारा शिष्य स्वयं अभ्यास करता रहता है और बढ़ता रहता है। जब कभी फिर उसकी चंचलता बढ़ जाती है और साधक के काबू से बाहर हो जाती है तो गुरु फिर सहायता पहुंचा देता है। इस दूसरी बेर यह भी जरुरी नहीं है कि साधक को गुरु के सम्मुख ही पहुंचना पड़े। वह कितनी ही दूर क्यों न हो, वहीं गुरु-शक्ति पहुँच कर उसी क्षण उसे सहायता देती है और शांति का अनुभव कराती है। यह एक विशेषता हमारे यहाँ की शैली में है। इसका प्रसाद हम लोगों को अपने श्री गुरुदेव से मिला है। दूसरी जगह यह सुगमता और यह ऐसी सहायता की झलक भी देखने को नहीं मिलती।

शिक्षित समाज को गुरु और शिष्य शब्द से घृणा हो रही थी। इसका कारण गुरुओं की धन लोलुपता और शिष्यों से सेवा लेना था। गुरु लोग शिष्यों को अपना गुलाम समझने लगे थे और हर तरह की खिदमत लेने में संकोच नहीं करते थे। दीक्षा देते समय ही कुछ न कुछ संपत्ति उनकी समेट लेते थे। श्री दादा गुरु महाराज ने इस रस्म को भी तोड़ दिया। उनकी शिक्षा यह थी कि  न कोई गुरु है, न कोई चेला, सब बराबर हैं, सभी मित्र और भ्राता हैं । वह सेवा लेना भी बहुत बुरा समझते थे। वह कहते थे कि दूसरों की निष्काम भावना से सेवा करो, जो नहीं जानता उसे रास्ता दिखाओ, जो विद्या लेना चाहता हो, उसे विद्या दान करो, पर बदले में कुछ लेने की इच्छा मत करो । उनके उपदेश में यह शब्द थे कि गुरु और शिष्य के भाव में द्वैत (गैरियत) रहता है। सबको अपना समझो, वह सब तुम्हारे हो जायें और तुम उनके हो जाओ। भेद-भाव को मिटा देना ही प्रेम है और ऐसा प्रेम ही इश्वर का रूप है। इस नवीनता को भी उन्होंने जन्म दिया, वर्ना गुरु-शिष्य की परिपाटी का रिवाज ऋषि काल से ही चला आ रहा था। उन दिनों अच्छा रहा होगा पर आजकल तो साधु संतों ने इसको पेशा कर लिया है।

दूसरा काम जो साधना में करना पड़ता है वह मल और आवरणों से हृदय को शुद्ध करना है। ऊपर जो बात मन पर अधिकार करने की कही गई है, उससे विक्षेप दूर होता है। विक्षेप के हट जाने पर भी मल और आवरण अंतः करण पर छाये रहते हैं जिनके कारण आत्मा का प्रकाश अंदर छिप जाता है और अंधकार छा जाता है। इस अंधकार के कारण ही जीव अशांत और दुखी रहता है। इसलिए भगवद-दर्शन के लिए इन मल और आवरणों के हटाने की आवश्यकता है। जितने यह दूर होते जाते हैं, उतना ही जीव इश्वर के समीप पहुँच जाता है, उसे आनंद और प्रकाश की झलक मिलती जाती है।

जप, तप, प्राणायाम, ध्यान, इत्यादि जितने भी यौगिक पद्धतियाँ प्रचलित हैं वह सब इसी एक काम को करती है। जिन अच्छे बुरे कामों को हम अपने इस जीवन में या पिछले जीवनों में करते आये हैं, इन्हीं का नाम संस्कार है। इन संस्कारों का ढेर जब तक नहीं हटेगा, यह दग्ध नहीं कर दिए जायेंगे, तब तक दर्शन नहीं हो सकता। यह सिद्धांत है।

हमारे यहां इस काम को बड़ी आसानी से कर दिया जाता है। शिक्षा देने वाला पुरुष, साधक के अन्तः करण पर अपनी आत्मा का प्रकाश फेंकता है, उसके द्वारा उसके अंधकार को दूर हटाता है। प्रकाश में ज्ञान और आनंद है। ऐसा करते ही शिष्य अपनी सारी तपन परे हटा आनंद में विभोर हो जाता है, शांति के समुद्र में तैरने लगता है। जो योगियों को पचासों वर्षों में नहीं मिल पाता वह यहाँ पहले दिन से ही भाग्य में आ जाती है। यह हमारे यहाँ की दूसरी देन है।

धीरे धीरे गुरु अपनी शक्ति से उसके मल व आवरणों को भी हटा फ़ेंक देता है। परन्तु इसमें कुछ समय लगाया जाता है, जल्दी करने में शिष्य को हानि हो सकती है। हाँ, जिनका क्षेत्र तैयार मिलता है, उनके लिए देर नहीं की जाती। अति शीघ्र प्रभु के दरबार तक उन्हें पहुंचा दिया जाता है।

यह सब विशेषताएं रामाश्रम सत्संग की साधना शैली की हैं जिनमे न समय लगता है और न परिश्रम करना पड़ता है। गुरु के आश्रय हो बैठ जाना शिष्य का कर्त्तव्य होता है। आगे सब गुरु अपनी जिम्मेदारी पर करता है। इसमें शिष्य द्रष्टा रहता है और गुरु कर्ता रहता है। यहाँ की शिक्षा स्वभाव को बदलती और प्रेममय जीवन बनाती है। 

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