हमारे महापुरुषों के महाप्रयाण के क्षण
परम पूज्य श्री हुजूर महाराज ( सूफी संत हज़रत मौलाना शाह फजल अहमद खां साहिब)
“… 30 नवम्बर सन १९०७ को हुजूर महाराज जी का स्वास्थ्य नरम हो गया। उस स्थिति में उन्होंने फ़रमाया कि सब अल्लाह की ओर ध्यान लगाओ। और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए जबकि सब लोग अजीबो गरीब फैज़ में डूबे हुए थे। आंख खुली तो पता लगा कि श्री हुजुर महाराज जी का शरीर शांत हो गया...”
(‘साधन’ पत्रिका के अप्रैल २०११ अंक से)
महात्मा श्री रामचन्द्रजी महाराज (दादा गुरु)
उनके महाप्रयाण के क्षणों की बहुत हलकी झलक पुस्तक ‘जीवन दर्शन’ में मिलती है जिसे नीचे दिया जा रहा है।
गुरु (महात्मा श्री रामचन्द्रजी महाराज) की कृपा आपके (ब्रह्मलीन परमसंत श्री डॉ चतुर्भुज सहाय जी महाराज के) ऊपर पूर्ण रूप से थी। वह जानते थे कि यह इस कार्य को पूरी तरह से कर सकते हैं; इनमे लगन भी है और उत्साह भी। आपकी ओर से उन्हें बड़ी आशा थी। ऐसे कुछ पत्र भी दादा-गुरु ने आप के पास भेजे जिनमें यह संकेत था कि तुम इस कार्य को कर सकते हो। उन्होंने यह भी कहा था – “मैं यह सब काम अपना नहीं कर रहा, अपने गुरु महाराज का कर रहा हूँ। मैं न रहूं तो इस काम को तुम पूरा करना। मेरी आत्मा को इससे बढ़कर कोई दूसरी प्रसन्नता की बात नहीं होगी और यही मेरी दक्षिणा समझना। इसके लिए मैं हर समय तुम्हारी सहायता करूँगा।” यह शब्द उन्होंने पहिले भी कहे थे और शरीर त्यागते समय जब आप वहां उपस्थित थे, तब भी दोहरा दिए। आपने आँखों में अश्रु भर कर यह आदेश स्वीकार किया और अंतिम बार चरण पकड़ कर सदा कृपा रखने की प्रार्थना की।
ब्रह्मलीन परमसंत श्री चतुर्भुज सहाय जी महाराज
मैं संध्या (२३ सितम्बर १९५७ के दिन) के चार बजे आज्ञा लेकर घर चला आया। अब २३ तारीख की संध्या होने को आ रही थी, सूर्य अस्ताचल को धीरे-धीरे जा रहा था, उधर हमारे पूज्य ने भी यहाँ से महाप्रयाण की सम्पूर्ण तैयारी आरंभ कर दी। इसीलिए उस रात कुछ अंधकार-सा बढ़ता चला आ रहा था परन्तु नित्य की भांति उस अँधेरे को हम लोग समझ नहीं रहें थे क्योंकि यह रात्रि अमावस्या की थी, चन्द्रमा की कोई किरण आज देखने को नहीं। आप अपने कमरे में पधारे। नरेन्द्र कुमार (उनके कनिष्ठ पुत्र) से जो नित्य पास सोते थे, कहा –“लल्लू ! तुम भी अपनी चारपाई बाहर ले जाओ।” यह कह कर आप अपने कमरे में पलंग पर लेट गए।
२४ सितम्बर, १९५७ को सबेरा होने को था परन्तु सूर्य अभी उदय नहीं हुआ था, प्रातः नित्य की भांति आप जागे, कुछ आहट हुई, माताजी उठीं और गई, पानी रखने को कहा तो कहने लगे –“नहीं हमने पानी रख लिया”। हुक्का भरने को जो लड़का रहता था, उसे भी नहीं जगाया, स्वयं अपने हाथ से हुक्का भर कर पिया और शौच चले गए। वहां से स्नान घर में आकार हाथ मुंह धोया, तौलिया से मुख पोंछ कर वहीँ ध्यान में बैठ गए, और ऐसे बैठे की उठ कर फिर खड़े नहीं हुए। कुछ देर बाद ग्वाला आया तो उसकी दृष्टि गुसलखाने की तरफ गई। उसने आकर कहा कि आज गुरूजी कैसे बैठे हैं? इस पर श्री हेमेन्द्र कुमार तथा श्री नरेन्द्र कुमार जल्दी से वहां गए, देखा, तो सिवा शरीर के और कुछ नहीं था, वह जीवन-ज्योति महान-ज्योति में विलीन हो चुकी थी ।
(पुस्तक ‘जीवन दर्शन’ से)
परम पूज्य बाबू मनमोहन लाल जी
४ दिसम्बर को रविवार था, सब लोग सत्संग के लिए ‘अवनी छाया’ (तिलकनगर, लखनऊ स्थित मकान का नाम जिसमे परम पूज्य बाबूजी रहते थे) में एकत्र हुए। पूज्य बाबूजी बाहर बरामदे, जिसमें सत्संग के लिए लोग बैठे थे, उसी के लगे भीतर कमरे में लेटे रहे। वहीं से सत्संग कराया। उस दिन सायंकाल भी चोट (एक दिन पहले गिरने से उनके दाहिने कूल्हे में बड़ी चोट आ गई थी) में दर्द के अतिरिक्त कोई अन्य कष्ट नहीं प्रतीत हुआ। ४/५ दिसम्बर, १९७७ कि रात्रि में बताते हैं कि उन्होंने दिव्य ज्ञान का घंटों उपदेश किया, जिसे किसी भी तरह रिकार्ड नहीं किया जा सका, यह दुर्भाग्य ही रहा। ५ दिसम्बर, १९७७, सोमवार को अत्यंत प्रातः काल पहुँचने पर एक विचित्र दशा देखने को मिली। निमोनिया का जोरदार असर देखकर डॉक्टर को बुलवाया गया जिन्होंने अस्पताल में भर्ती का परमार्श दिया। उनसे भर्ती के लिए असमर्थता व्यक्त करने पर, वह इंजेक्शन लगाकर चले गए। हालत में सुधार होने के बजाय हर क्षण दशा बिगड़ती ही गई। ११ बजे दिन के पश्चात आवाज़ बंद हो गई। उससे पूर्व उन्होंने इस अधम को याद किया। कहने सुनने को अचेतन अवस्था को प्राप्त हो रहे शरीर से निजधाम में बैठे प्रभु ने मस्तक पर हाथ फेर कर कहा ‘इस अद्भुत सत्संग की सेवा निष्कपट होकर प्रेम से करते रहोगे तो जीवन आनंद से भर जायेगा। सत्संग का मुख्य आधार प्रेम है अतएव जहाँ तक संभव हो उसी दशा में रहने की चेष्टा करो और सबसे बिना किसी भेद-भाव के प्रेम करो। इसके पश्चात सूर्य बराबर अस्ताचल को प्रस्थान करता ही गया और सांयकाल ६ बजकर १० मिनट पर सदैव के लिए अंतरिक्ष में विलीन हो गया।
(पुस्तक ‘सरल हृदय संत श्री मंमोहनलाल जी (पूज्य बाबूजी) से)
जगद्जननी जिया माँ
माँ दिनांक १ नवम्बर १९८४ को जयपुर अपने कनिष्ठ पुत्र श्री डॉ नरेन्द्र कुमार जी के पास नेत्र चिकित्सा हेतु गई थीं। उनकी आंख का आपरेशन बड़ी सुन्दर विधि से हो गया, आँखों में ज्योति आ गई। आपका विचार फरवरी के माह तक जयपुर ही रहने का था। लेकिन जनवरी के दूसरे सप्ताह से ही आपको हल्का ज्वर रहने लगा। योग्य चिकित्सकों की चिकित्सा चली लेकिन कोई लाभ नहीं हो रहा था। अतः आपने पूज्य डॉ नरेन्द्र कुमार जी से कहा कि अब हमें मथुरा ले चलो वहीं हम ठीक हो सकेंगे। अतः आप १५ जनवरी को मथुरा पधार गयीं। आपका समुचित इलाज परम पूज्य डॉ ब्रिजेन्द्र कुमार जी के देख रेख में अन्य योग्य डॉक्टरों द्वारा प्रारंभ हुआ। स्वास्थ्य कुछ सुधर नहीं रहा था। दिनांक २६ जनवरी को हल्का सा दिल का दौरा पड़ गया। दिल्ली से डॉक्टर बुलाए गए। दिनांक २७ जनवरी को कुछ सुधार रहा तथा रात्रि को नींद आई। लेकिन माँ का विचार अपना प्यार हम सब से छीनने का बन रहा था। वह उस परम आनंद को प्राप्त करने का विचार कर चुकी थीं जिसके बारे में कबीर साहब ने लिखा है ------
या मरिबे से जग डरे मोहि बड़ा आनंद
कब मरिहों कब पाईहों पुरन परमानन्द
माँ का यह विचार शायद उस समय ही बन गया था जब वे जनवरी में जयपुर में बीमार हुई थी। उनकी इच्छा अपना शरीर उस स्थान पर ही छोड़ने का था जहाँ पूज्य परम संत श्री डॉ चतुर्भुज सहाय जी ने अपना पार्थिव शरीर छोड़ा था। इसलिए वे पूज्य नरेन्द्र कुमार जी से आग्रह कर रहीं थी कि हमें मथुरा पहुंचा दो क्योंकि अब हम यह लीला समाप्त कर उस परम आनंद में विलीन होना चाहते हैं। आखिर वह समय भी आया दिनांक २८ जनवरी १९८५। प्रातः काल से ही स्वास्थ्य फिर गिरने लगा। और लगता है उन्हें फिर हल्का सा दिल का दौरा हुआ, लेकिन आप बिलकुल सावधान थीं, होश था। आपने पूज्य परम संत डॉ चतुर्भुज सहाय जी का चित्र माँगा। उनके चरण स्पर्श किये और मन ही मन उनसे अपनी लीला समाप्त करने की आज्ञा मांगी, फिर कहा कि गुरु महाराज (परम पूज्य डॉ चतुर्भुज सहाय जी) का चरणामृत रखा है, उसे ला दो। घर में किसी को पता भी नहीं था। आपने ही वह स्थान बतलाया। जहाँ वह अमृत रखा था और पान किया। सभी घरवालों से कहा--आपने मेरी बड़ी सेवा की है। भगवान आप सब पर कृपा करते रहें और जिस प्रकार गजराज के गले से फूलों की माला गिर जाती है उसी प्रकार आप भी अपने नश्वर शरीर छोड़ उस दिव्यानंद में प्रवेश कर गयीं और शक्ति और शक्तिवान, गुरु और गुरुशक्ति दो मिलकर एक हो गई और इस व्यवहारिक अध्यात्मज्ञान का एक अध्याय जिसे परम संत श्री डॉ चतुर्भुज सहाय जी ने प्रारंभ किया था आज समाप्त हो गया।
(पुस्तक ‘पुण्य स्मरण’ से )
परम पूज्य डा ब्रजेन्द्र कुमार साहब
सभी संतों ने ममता के धागे समेट कर भगवान के चरणों में लगा देने की बात समय समय पर कही है। गुरु महाराज ने भी यही कहा है कि ‘मैं’ और ‘मेरा’ ही बंधन है। बड़े भैया भी यदा कदा दो बातें कहा करते थे -- एक तो यह कि मुझे मृत्यु से भय नहीं है पर मैं घिसट कर जिसमे दूसरों की सेवा लेनी पड़ती है, जीना नहीं चाहता, दूसरी बात ये है कि मृत्यु के समय कोई ऐसा व्यक्ति पास नहीं होना चाहिए जिसके कारण ममता का भाव जाग्रत हो उठे। इस सन्दर्भ में प्रसंगवश पूज्य गुरुदेव की यह बात याद आ जाना भी स्वाभाविक है कि उन्होंने भी महाप्रयाण से एक दिन पूर्व सबको अपने पास से हटा दिया यहाँ तक कि – लल्लू (श्री नरेन्द्र कुमार) से भी उस रात अलग सोने के लिए कह दिया। ऐसा ही कुछ बड़े भैया ने भी किया। १४ फरवरी की शाम से उनकी तबियत कुछ अधिक खराब होने लगी तथा ज्वर के कारण शरीर में पीड़ा बढ़ने लगी। उस समय एक सत्संगी भाई श्रीराम तथा घर के लोग जिनमें मझले भैया की पत्नी, पुत्रवधू, तथा भाभी माँ थी और जो सेवा में लगे थे उन्हें किसी न किसी बहाने से हटा दिया। यहाँ तक हुआ कि मझले भैया (श्री हेमेन्द्र कुमार जी) समाचार सुन कर भैया का हाल जानने के लिए तुरंत पहुंचे। और लोग तो जा चुके थे। इनसे कहा कि तुम इंटेंसिव केयर यूनिट (intensive care unit) में मुझे वृन्दावन ले चलो। यह सुनकर मझले भैया भी वहां से चले गए, रह गई भाभी माँ, उनसे कहा कि तुम तैयार हो जाओ। बस वह भी चली गई। अब सगे सम्बन्धी कोई उनके पास न थे। केवल मधुवन प्रसाद यादव थे। जब उन्होंने देखा कि केवल वह हैं और उनके प्रिय हैं तो उनके हाथ से गंगाजल पान कर त्याग दिया अपना नश्वर शरीर और हंसा अपने नीड को उड़ गया। जो उन्होंने कहा था उन्होंने चाहा था वैसे ही शरीर त्याग दिया – न किसी से सेवा ली, और न कोई पास ही रखा।
(पुस्तक ‘नवनीत हृदय संत डॉ ब्रजेन्द्र कुमार जी (बड़े भैया)’ से)
परम भागवत पंडित मिहीलाल जी महाराज
४ दिसम्बर सन १९८३ को उनके कमरे में पूर्ण शांति थी। उनका उस परम सत्ता से साकार हो रहा था। आप स्पष्ट भाषा में कह रहे थे ‘महाराज, चार साल हो गए अब और कितना परिश्रम करूं। अब .......’ तब तक सुरेश ने नीरवता भंग करते हुए कहा ‘चाचाजी, यह क्या कह रहे थे?’ लेकिन अब वह वार्तालाप बंद हो गया। वह भी उस स्थिति से नीचे आ गए और मौन हो गए। बात घर में औरों को मालूम हुई। मुझे कबीर साहब की यह साखी याद आ गई ----
या मरिबे से जग डरे मोहि बड़ा आनंद
कब मरिहों कब पाईहों पुरन परमानन्द
अब यह संत गुरु महाराज से विनय कर रहें हैं कि महाराज अब यह शरीर काम नहीं देता। चार साल से कठिन परिश्रम कर रहा हूँ, अब यह शरीर साथ नहीं देता। अतः अब लीला समाप्त करने की आज्ञा प्रदान करें। और शायद उनकी यह प्रार्थना स्वीकार हो गई थी।
वह अभागा दिन हम सब के लिए तथा शुभ मुहूर्त उन स्वयं के लिए आ गया था। आज दिन सोमवार दिनांक १२ दिसंबर सुबह से स्वास्थ्य ठीक था। रक्तचाप सामान्य था, लेकिन कफ कुछ परेशान कर रहा था। रात्रि को एक बजे स्वास्थ्य अचानक बिगड़ गया सभी भाई जाग रहे थे। हरदोई से डॉ रेवती रमण जी आ गए थे। शाहजहांपुर से श्री रघुवर दयाल जी आ गए थे। डॉ साहब दवा दे रहे थे, लेकिन वह अपनी तैयारी कर रहे थे। ब्रह्ममुहुर्त की वेला आने को थी। तीन बज रहे थे। रक्तचाप गिरने लगा था। धीरे धीरे वह झंकार समाप्त होती प्रतीत हो रही थी। बड़े भाईसाहब श्री प्रभुदयाल जी ने हरि कीर्तन प्रारंभ कर दिया था। वे स्वयं भी स्पष्ट रूप से राम राम कहते जा रहे थे। प्रेरणा हुई गंगा जल एवं तुलसी दल दिया जाये। गंगाजल का सेवन तो पहले से ही चल रहा था, तुलसी दल और लाया गया। भाईसाहब ने अश्रुपूरित नेत्रों एवं रुन्घे स्वर से से कहा ‘चाचाजी आप ही कहा करते थे, ‘औषधि जान्हवी तोयं वैद्य नारायणो हरि’। अब आपकी सेवा में वही प्रस्तुत है। शायद इसी औषधि की प्रतीक्षा थी। मुख खोल दिया। यथेष्ट गंगाजल एवं चार पांच तुलसीदल उदरस्थ कर लिए। औषधि ने काम किया। उनका कफ शांत हो गया। काया निरोग हो गई। एक अलौकिक एवं अपूर्व कांति उनके मुखमंडल पर छा गई। ऐसा प्रतीत हुआ कि सारा कमरा ही उस अलौकिक प्रकाश से भर गया था चेतना पूर्ण थी। सबने प्रणाम किया। अंतिम प्रणाम। सब स्वीकार कर वह झंकार समाप्त हो गई। पूर्ण शांति ! वह जोत जोत में समा गई।
(परम पूज्य श्री कृष्णकांत जी महाराज के एक लेख से)
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