Sunday, 15 January 2012

नरक की सात मंजिलें

नरक की सात मंजिलें

(क्या स्वर्ग और नरक कल्पना की चीज़ें हैं? आज का पढ़ा लिखा व्यक्ति ऐसा ही समझता है पर ऐसा नहीं है। नर्क प्राणमय कोष की अवस्था है। इसमें भी सात स्थान हैं। प्राणमय कोष का प्राणी इन सातों में घूमता है। इनका आँखों देखा वर्णन श्री गुरुदेव (ब्रह्मलीन परमसंत श्री डॉ चतुर्भुज सहाय जी जिन्होंने रामाश्रम सत्संग, मथुरा की स्थापना किया और जो आज भी अदृश्य रूप से उसका सञ्चालन कर रहें हैं) की वाणी में पढ़िए ....)

प्राणमय कोश को ही वैदिक भाषा में भुवलोक और स्व:लोक कहते हैं। बौद्धों के यहाँ इसको कामलोक कहा जाता है, क्योंकि यहाँ का प्राणी विषय कामना में फँसा हुआ दुःख उठाता रहता है। मुसलमान और ईसाईयों में दोजख या आलम अरवाह और थ्योसोफिस्टो में इथिरियल प्लान कहलाता है। प्राण शरीर को कामी शरीर या इथिरियल बॉडी कहते हैं। हिन्दुओ के प्रेतलोक और पितृलोक इसी प्राणमय कोश के अन्तर्गत हैं। यह कोश सात भागो में विभक्त है। नीचे के तीन जो पृथ्वी से मिले हुए हैं, अत्यंत दुःख देने वाले हैं और ऊपर के चार कुछ कम। वहाँ का प्राणी बमुकाबिले नीचे वालो के थोड़ी चैन के जिंदगी बसर करता है। जो मनुष्य जीवन में स्वार्थ वश दूसरों पर जुल्म करते हैं, चोर और जुआरी हैं, झूँठ, चुगलखोरी और निंदा के व्यसन हैं, मधमांस सेवी हैं, अपने लाभ के लिये दूसरों को हानि पहुंचाते हैं, सूद व रिश्वत लेते हैं, दूसरों को देख के जलते हैं इत्यादि ऐसे कुकर्मियो को मरने के उपरांत इन नीचे लोको में डाला जाता है और जो बुरे कर्म तो  अधिक नहीं करते लेकिन फिर भी स्वार्थ लिये हुए उनके काम होते हैं, उन्हें ऊपर के चार लोको में जगह दी जाती है।

जैसे धन प्राप्ति के हेतु विधा पढ़ना, प्रतिष्ठा के लिये तप करना, प्रशंसा के लिये दान देना, नाम या इज्जत के लिये पर-सेवा या देश-सेवा करना, दूसरे अच्छी दृष्टि से देखें इसके लिए भजन या कीर्तन करना, दूसरों से सेवा लेने की इच्छा से गुरु या उपदेशक बनना, तात्पर्य यह है कि जो लोग सत्कर्म करते हुए भी ऐहिक कामनाओं को अपने गले में बांधे रहते हैं, उनके लिये मरने पर इन्ही लोको में डाल दिया जाता है और जब तक उन के वह जिंदगी वाले विचार बदलते नहीं, जब तक उनकी दृष्टि ऊँची नहीं हो जाता, तब तक वह वहीं पड़े-पड़े कष्ट उठाया करते हैं। विचार बदलने पर काम शरीर क्षीण हो जाता हैं और वह प्राणी कर्मानुसार या तो पृथ्वी पर आ गिरते हैं या ऊपर चले जाते हैं। जिस मनुष्य की कामनाये जितनी बलवती होती हैं, जितना वह सांसारिक भोगो में फँसा रहता हैं, उतना ही उसका काम शरीर अथवा प्राण शरीर मोटा होता है और उतना ही समय उसके छूटने के लिये अधिक लगता हैं। जो लोग अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसी जीवन में अपने काम शरीर को तोड़ लेते हैं उनको इस कामलोक की दुनिया में नहीं भटकना पड़ता, वह शरीर त्यागने के पीछे सीधे ऊँचे स्थानों को चले जाते हैं जिनका वर्णन हम आगे करेगे।

रहन-सहन

प्राणमय कोश के नीचे के तीन सरकिल ही हिंदुओं का नर्क और मुसलमानों की दोजख है. जैसे जीव जाग्रति के विचारों के अनुसार स्वप्न में रचना कर सुख व दुःख उठाता है, वैसे ही यहाँ का प्राणी अपने संकल्प से दुःख के सामान इकठ्टा कर कष्ट भोगता है। मजहबी पुस्तकों ने मन के ऊपर जैसा रंग चढ़ा दिया हैं, जो विचार दिमाग में ठूंस दिए हैं, उन्ही के अनुसार वहाँ के दृश्य उसको दिखाई देते हैं और भ्रम वश उन्हें वह सच्चा समझाता है और उनसे भयभीत हो जाता हैं। जैसे यह शिक्षा पाया हुआ मनुष्य, कि परस्त्री-गमन करने से मरने के पीछे यम के दूत पकड़ के उसे नर्क में ले जायेंगे और आग में जलायेगे या गरम लोहे से दागेंगे, बस इस ख्याल के असर से ऐसा ही होते हुए उसे अनुभव होगा। यमदूत भी उसके सम्मुख होंगे और आग भी, और उसी मे भुना जा रहा होगा। यदि किसी कर्म के फल में उसे पाप के कुण्ड में डाला जाना लिखा हैं और ऐसी शिक्षा उसे मिली है तो उसे पाप के कुण्ड ही दिखाई देंगे इत्यादि। तात्पर्य यह है कि  जिन ख्यालात को वह जिंदगी में पकाता रहता है वही उसके जिदगी में गूंजते रहते हैं और उन्ही के अनुसार मरने के पीछे सुख-दुःख भोगता हैं।

सबसे बड़ा कष्ट उनको होता है जो अपघात या ख़ुदकुशी में मरते हैं। चूँकि मृत्यु के समय इनको मनुष्य शरीर से घृणा उत्पन्न हो जाता है इसलिए बहुत काल तक फिर उन्हें जन्म नहीं मिलता, प्रेतयोनी में पड़े हुए उसी कष्ट के दृश्य देखा करते हैं कि जिसके लिए प्राण त्यागे थे, यह बड़ा पाप है। यही स्थान जिनमे ऐसी कुविचारो वाली प्रेतात्माये रहती हैं रौरव नर्क कहलाता है।

जो लोग ऐसा मानते हैं कि स्वर्ग और नर्क कहीं बाहिर नहीं है, पृथ्वी पर पर ही हैं, उनका कहना भी किसी हद तक ठीक है। कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी, इत्यादि स्थावर, जंगम सब भोग योनियाँ ही हैं। मनुष्य को छोड़ के शेष पृथ्वी की योनियाँ भी नारकीय हैं। परन्तु जितना प्रेतयोनि वाले कष्ट उठाते हैं, उतना इन्हें नहीं होता, परन्तु पृथ्वी से परे और कोई सुख व दुःख के लोक नहीं हैं, ऐसा उनका मानना गलत है। यह सब हमारी आँखों देखे हुए हैं। गुरु कृपा से इन सबका हमें अनुभव है।

चौथा पितृलोक

प्राणमय कोश का चौथा सरकिल पितृलोक कहलाता हैं। जो मनुष्य जीवन पर्यन्त अपने निजी स्त्री-पुत्रों के तथा कुटुंब के पालन-पोषण में लगे रहते हैं और उसके बदले में उनसे कोई कामना नहीं रखते उनको पितृलोक में जगह मिलती है। अतिथि सत्कार, गृहस्थी को पालना तथा कुटुम्बियो की सेवा जिनका ध्येय रहता हैं और इस काम को कर्तव्य समझ के करते हैं, वो आत्मा यहाँ की अधिकारी होती हैं। यह पितृ-आत्माएँ भोग समाप्त होने पर इस लोक से हट जाती हैं। जिन्हें भाग्य से ज्ञान की किरण मिल जाता है वह कुटुम्बियो के ममत्व को त्याग ऊँचे लोको में चली जाती है और जो उसी ममत्व में  फँसी रहती हैं, वह लौंट के अपने ही कुटुंब में जन्म लेती हैं और बड़े काल तक जन्मती मरती अपने कुटुंब के अंदर ही चक्कर काटती हैं। स्त्रियाँ कन्या रूप में और पुरुष बालक के रूप में आते हैं, इस प्रकार जिन आत्माओं को पिता या परपिता हम मानते चले आ रहें थे, वह नई शक्ल में पुत्र या पौत्र बन जाते हैं। जिनको माता या दादी कहते थे वह स्त्री के रूप में या पुत्री के रूप में हमारे घर आ जाती हैं, इस तरह यह खेल सैकंडो वर्षों तक चला जाता हैं। जब तक सत्कर्मो और सत्संगो के द्वारा हमारे ममत्व की जंजीर ढीली नहीं हो जाते तब तक उसी घर में हमारा आवागमन जारी रहता है। यह भी जरुरी नहीं कि हम मनुष्य शरीर में ही आवे, कभी-कभी कर्मानुसार कुत्ते, बैल, गाय, भैंस या तोता, मैना इत्यादि बन के भी आते हैं और उसी कुटुंब कि सेवा करते हैं। पितरो को अपने किए हुए किसी सत्कर्म का फल दे देने पर उनका उद्धार हो जाता हैं, उस का नाम श्राद्ध है।

पांचवाँ विद्याधर लोक

प्राणमय का पाँचवां स्थान विद्याधरो का है। दिन और रात विद्या में रत रहने वाले, पुस्तकों के कीड़े, शास्त्रार्थ करने वाले, कथा बाँचने वाले, उपदेश देने वाले, वैज्ञानिक अनुसंधान (साइंस की नई खोज) करने वाले, तर्क करने वाले, वेदान्त के विचारों को पढ़ें मौखिक बकने वाले, सुधारक (Reformer) जातीय सभाओं में भाग लाने वाले इत्यादि, कि जिनके विचार तो उत्तम हैं परन्तु व्यवहार (अमल) में वह लोग वैसे नहीं है अथवा इन कामों की तह में कोई स्वार्थ लगा हुआ हैं, ऐसे लोग मर के विद्याधर लोक में पहुँचते हैं और जिन कामों को करने में जिंदगी बिताई है, उन्ही को वहाँ करते रहते हैं, परन्तु वह काल्पनिक यानि फर्जी होते हैं। उपदेशक झूठी सभाए बना उपदेश देता हैं, कथावाचक कथा पढता है, वेदान्ती ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या के बाग विलास में भटकता, वैज्ञानिक अनुसंधान करता, दार्शनिक शास्त्री शास्त्रार्थ करता इत्यादि यही खेल स्वप्रवत वहाँ हर समय होता रहता है। भोग समाप्त हो जाने पर यह आत्माये भी या तो ऊपर के स्थानों में चली जाती हैं या पृथ्वी पर आ जाती हैं। जिनके अंत:करण पर से विद्या का आवरण हट जाता हैं वह ऊँची उठ जाती हैं और जिनका पर्दा नहीं हटता वह पृथ्वी पर आके अपनी-अपनी श्रेणी में सम्मिलित हो काम करने लगती हैं।

छटवां सिद्धलोक

ये लोक सत् कर्मियों का स्वर्ग है। दान देने वाले, सदावर्त बाँटने वाले, मंदिर, धर्मशाला, शफाखाना इत्यादि बनाने वाले, स्कूल, कालिज, पाठशाला खोलने वाले, दुखियों की सेवा करने वाले, यज्ञ, हवन करने वाले, सकाम जप-तप करने वाले, सिद्धियों की इच्छा से योग साधने वाले, किसी इच्छा से भक्ति में तत्पर रहने वाले, देश और जाति की निष्काम सेवा करने वाले, इत्यादि को इस स्थान में रखा जाता हैं। यक्ष-राक्षस और सिद्ध इसी लोक के प्राणी हैं। मुसलमानों में जिन यहाँ की आत्माओ को ही कहते हैं। भोग समाप्त होने पर यहाँ पृथ्वी पर आते हैं और संस्कारानुसार अपने-अपने काम में जुट जाते हैं।

सातवाँ गन्धर्व व किन्नर लोक

यह उन आत्माओ का लोक है जो सद्कर्मी तो थे मगर विलास प्रिय जिनका जीवन था।  कोई बुरा काम नहीं करते परन्तु दिल बहलावे और सुख की सामग्री हर समय अपने चारों ओर जमा रखते हैं। नाचना, गाना, सैर तमाशा, ताश शतरंज खेलना इत्यादि। दूसरों का भला भी करते हैं, उनकी तन-मन-धन से सेवा सुश्रुषा करते हैं, दान दक्षिणा देते हैं, संगीत कला, चित्रकला की उन्नति में उद्योग करते रहते हैं इत्यादि। जिनकी जीवन को  सुखी बनाने की लत हो परन्तु धर्म से एक पग भी दूर न हटे, उनके लिये यह लोक है। गन्धर्व, अप्सरा, किन्नरी सब यहाँ के निवासी ही समझना चाहिये, यह सब भी लौंट के पृथ्वी पर आते हैं ओर वे अपने कामो में लग जाते हैं।

यह प्राणमय कोश के सातों भागो का वर्णन किया। यह सब नर्क के ही अंतर्गत हैं। स्वर्ग इससे ऊपर है। नीचे के तीन अत्यंत दुखदायक हैं इसलिये उनको रौरव नर्क कहना चाहिये। चौथा बीच का कम दुःख देने वाला है ओर ऊपर के तीनों सूक्ष्म हैं, इनमे क्रमश: सुख अधिक होता चला गया हैं और दुःख कम होता गया है।
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