बाबा मलूकदास जी
इनका जन्म १६३१ विक्रमी संवत में, उस वक्त के इलाहाबाद प्रान्त के ‘कड़ा’ नामक ग्राम में एक खत्री परिवार में हुआ था। कहते हैं जाड़े के दिन थे, एक दिन बड़ी भारी कम्बल की गठरी लाद के यह बेचने को गये थे। उस दिन कोई कम्बल नहीं बिका और न इनको एक पैसे की आय हुई। संध्या समय घर को लौटे, बोझ के मारे थक गए थे, रास्ते में एक वृक्ष के नीचे विश्राम लेने को बैठ गए। गठरी उतार के पृथ्वी पर रख दी। सोचने लगे आज घर कैसे पहुंचेंगे, अब इतना बोझ ले जाने की शरीर में सामर्थ्य नहीं रहा। थोड़ी देर बाद एक मनुष्य दिखाई पड़ा। बोले -- भाई अगर हमारी गठरी घर पहुंचा दो तो हम तुमको मजदूरी देंगे। मनुष्य राजी हो गया और वह उसके सर पर गठरी लाद कर चल दिए। थक बहुत रहे थे। जब उसके साथ नहीं चला गया तो उसे अपने घर का पता दिया और आप पीछे रह गए। मजदूर ने जल्दी से ले जाके गठरी घर पर पटक दी और अपनी मजदूरी मांगने लगा। माँ ने देखा कि लड़का साथ नहीं है, कहीं ऐसा न हो कि इस आदमी ने दो एक कम्बल गठरी में से चुरा लिए हो। उसने उत्तर दिया कि मजदूरी तो “मलूक” आके देगा। यह दो रोटियां हैं, जब तक उस कोठे में बैठकर खा लो। मजदूर जब रोटी खाने के लिए कोठे में पहुँच गया इसने बाहर से किवाड़ बंद कर लिए ताकि यह कहीं भाग न जाये। इतने में मलूकदास जी भी आ गए। माँ बहुत क्रोधित हुई कि तू अनजान आदमी के हाथ में इस प्रकार सैकड़ों रुपये का माल देके पीछे कैसे रह गया था। देख मैंने उस आदमी को कोठे में बंद कर रखा है, पहले तू अपना कम्बल गिन लेना तब उसको मजदूरी देना। आजकल का समय विश्वास का नहीं है, हर मनुष्य चालाक और दगाबाज ही दिखाई देता है। अब आगे भूलकर कभी ऐसा मत करना। यह माता ने कहा और चुप हो गई।
मलूकदास जी ने पहले कम्बलों को गिना, फिर मजदूरी चुकाने के लिए कोठे को खोला तो वहां एक रोटी का टुकड़ा पड़ा था और कोई नहीं था। आँखों में आंसू भर आये, उस टुकड़े को प्रसाद समझ फ़ौरन ही खा गए और माँ से बोले कि तू अत्यंत भाग्यशाली है कि तुझे साक्षात् भगवान के दर्शन हुए। यह मजदूर नहीं था, स्वयं भगवान ही मेरी सहायता को आ पहुंचे थे। यह उनका ही स्वभाव है कि विपत्ति में संकट में सदा ही अपने जनों की सहायता करते हैं। खुद कष्ट उठाते हैं परन्तु सेवकों को सुख दिया करते हैं। मुझे बहुत धोखा हुआ मैंने उनको साधारण मजदूर समझा यह मेरी अज्ञानता थी।
माता से बोले – अब मैं इसी कोठे में बंद होता हूँ। जब तक मैं बाहर न आऊँ मुझे छेड़ना नहीं और न मेरे भोजनो की कोई फिकर करना। मलूकदास जी कई दिन तक बिना खाए पिए उसी में बंद रहे। कहा जाता है कि वहां पर फिर उनको उसी मजदूर के दर्शन हुए और उसी ने इनको ज्ञान दिया। जब यह बाहर निकले तो इनके मुख पर अद्भुत कांति थी, चेहरा प्रफुल्लित और शांत था। उस समय कि यह साखी उन्होंने कही --
गुरु मेरा बहुरंगी, चंगी लाखों वेश बनावे
जिस पर दया दृष्टि हो उसको अपने चरण लगावे
संत श्री नामदेव जी
आपका जन्म महाराष्ट्र के नारुसिबमनी गांव में संवत १३२७ में हुआ था। जात के छिपी होने के कारण धर्म के ठेकेदार इनसे बहुत इर्ष्या करते थे। एक बार शिवरात्रि के अवसर पर नामदेव जी गांव के मंदिर में अपने इष्ट भगवान शिव को गीत सुना रहे थे। उनका यह अलाप वहां के पंडों को प्रलाप लगा। इन्हें वहां से हटा दिया गया। यह बेचारे बाहर मंदिर के पीछे कीर्तन करने लगे। रो रो कर कहने लगे -- हे प्रभु, तू मुझे भूल जायेगा तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा। हे पिता, सब मुझे शुद्र कहकर कोप करते हैं और तेरे द्वार पर बैठने नहीं देते’। ऐसे अनुराग और अश्रु भरे वाणी पिता कैसे नहीं सुनते। मंदिर का द्वार उन्ही की ओर घूम गया और पंडों पर घरों पानी पड़ गया। अभी भी वहां नंदिदेव की मूर्ति शंकर भगवान के सामने नहीं है बल्कि पीठ की और है।
भक्त मनकोजी बोघला
भक्त मनकोजी बरार प्रान्त के प्रसिद्ध नगर धमन गांव के पटेल थे। एक बार देश में अकाल पड़ा। लोग भूखों मरने लगे। इन्होने अपने भंडार खोल दिए। सब कुछ भूखों, नंगों को दान कर डाला। जब कुछ नहीं बचा, तो सोना, रत्न इत्यादि जो भी पास था उन्हें बेचकर दूसरों को भोजन वस्त्र इत्यादि दिया। घर में चारा नहीं होने के कारण पशुओं को भी दान कर दिया। जब बिलकुल ही खाली हो गए तो पति पत्नी दोनों मजदूरी करके पेट पालने लगे।
इनका नियम था कि प्रत्येक एकादशी को पंढरपुर जाते थे। चंद्रभागा में स्नान करके भगवान के दर्शन करते, द्वादशी के दिन उसी नदी के तट पर ब्राह्मणों को भोजन कराते, गरीबों को अन्न वस्त्र बाँट कर घर लौट जाते।
पर इस साल उनके पास एक भी पैसा नहीं था। बड़ी चिंता हुई व्रत कैसे निभाया जाये। उनको एक उपाय सूझा। रास्ते में जंगल पड़ा। आपने सूखी लकड़ियों का गट्ठा बनाया और लेकर पंढरपुर पहुँचे। वह तीन पैसे में बिका। बस फिर क्या था। इन पैसों के इन्होने फूल पत्ते लिए, चंद्रभागा में स्नान कर श्री पांडुरंग जी का पूजन किया और रात्रि जागरण किया।
सवेरे द्वादशी थी। आप फिर जंगल गए, एक गट्ठर और लाए। उसे बेचकर फिर आटा लाए और किसी ब्राह्मण की प्रतीक्षा करने लगे कि भोजन कराऊं। पर सूखा आटा कौन ले? न साग, न दाल और न घी। दोपहर हो गया पर किसी ब्राह्मण ने सूखा आटा लेना स्वीकार नहीं किया। बोघला जी के नेत्र भर आये और सोचने लगे कि आज मेरा व्रत भंग हो गया।
परन्तु प्रेम का स्वाद तो प्रेम स्वरुप भगवान ही जानते हैं। वह सुदामा के सूखे चावल बड़े स्वाद से खाने लगे, शबरी के जूठे बेरों की तारीफ जीवन भर करते रहे, बिदुर के घर तो प्रेम में इतने विभोर हो गए कि फलों को छोड़ छिलके ही बड़े स्वाद से खाने लगे। आज वही मनकोजी के सूखे आटे का स्वाद लेने के लिए बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर लाठी टेकते हुए सामने आकर कहने लगे ---ओ भगत, बड़ी भूख लगी है, तेरे पास कुछ खाने को हो तो दे। मनकोजी की मनोकामना पूर्ण हुई और यह सोचकर कि जाने ब्राह्मण केवल आटा लेंगे या नहीं, कहा -- महाराज मेरे पास सूखा आटा है और कुछ नहीं आप स्वीकार करें तो यह उपस्थित है। ब्राह्मण बोला -- अरे बाबा भूख में यह नहीं देखा जाता कि साग और घी है कि नहीं, वह पेट भरे की बात है। तू चार कंडे (उपला) ले आ, मैं अभी यहीं बनाकर खाऊंगा। मुझे बड़ी क्षुधा सता रही है।
मनकोजी ने तुरंत मांग कर कंडे ला दिए। ब्राह्मण बैठकर आग जला भोजन की तैयारी करने लगे। फिर भला सर्वअधीश्वरी लक्ष्मी जी ही क्यों अलग रहें। वह भी बुड्ढी ब्राह्मणी का रूप धारण कर ब्राह्मण से बोली -- मुझे छोड़कर आज आप ब्राह्मण का अन्न अकेले ही खाने को क्यों आ गए? ऐसा शुद्ध अन्न तो भाग्य से कहीं कहीं ही प्राप्त होता है। क्योंकि शुद्ध अन्न ही शुद्ध मन का निर्माण करता है, मेरा भी मन इस अन्न से पवित्र होगा’। यह कहकर आटा माड़ा और बाटी बनानी प्रारंभ कर दी।
बोघला यह दृश्य देखकर तो प्रसन्न बहुत ही हुए परन्तु मन में यह ख्याल दौर लगाने लगा कि आटा थोड़ा है और यह दो प्राणी हैं भूखे रह जायेंगे। भोजन तैयार हो गया। ब्राह्मण ने बोघला से कहा -- भाई तुम भी भोजन करो। उन्होंने कहा -- आप कीजिये, मैं तो आपकी जूठन का एक कण पाकर ही कृत-कृत्य हो जाऊंगा। फिर क्या था जगन्नाथ पांडुरंग और जगदम्बा श्री रुक्मिणी जी ने भर पेट भोजन किया और तृप्त होकर बोघला से बोले -- तो तुम भी भोजन करो। और यह कहते कहते थोड़ी देर में आँखों से ओझल हो गए। बोघला जी को अब पता लगा कि यह तो हमारे साक्षात् पांडुरंग ही थे।
महात्मा इब्राहिम अधम
महात्मा इब्राहिम अपने गुरु के आदेश अनुसार बादशाह की गद्दी पर अपने बेटे को बैठाकर खुद जंगल को रवाना हो गए। रात को पहाड़ी पर एक कुटिया दिखाई दिया। ये वहाँ पहुँच गए, एक बुड्ढा फकीर उसमें दिखाई दिया। रात काटने की आज्ञा लेकर एक बोरिया पर बैठ गए। खाने की कोई वस्तु उस फकीर के पास भी नहीं थी। उसे चौबीस घंटे में जौ की दो सूखी रोटियां और नमक कोई दे जाता है। उसी पर संतोष के साथ वर्षों से वह गुजारा करता है। महात्मा इब्राहिम का बदन थकावट से चूर हो रहा था। थोड़ी देर में नींद ने सताया और वह उसी टाट पर पड़ के सो गए। पहाड़ी के नीचे वाले मैदान में फकीर ने देखा --- बड़ी चहल पहल हो रही है, डेरे खेमे लगे हैं, चूल्हे जल रहें हैं, उन पर बड़ी-बड़ी हांडियां चढ़ी हुई हैं, अनेक आदमी इधर से उधर दौड़ते हुए काम कर रहे हैं । भोजनों की महक ने सारा जंगल सुगन्धित कर रखा है। समझे कोई अमीर जंगल की सैर को आया होगा, उसी ने पड़ाव डाला होगा। परन्तु यह तो कोई और ही तमाशा था। स्वर्ग से ऋद्धियाँ व सिद्धियाँ ईश्वरीय आज्ञा ले इब्राहिम अधम का अतिथि सत्कार करने पधारी थीं। आधा घंटा नहीं गुजरा होगा, कई मनुष्य सिरों पर बड़े-बड़े थाल रक्खे हुए पहाड़ी पर चढ़ते हुए दिखाई दिए। इब्राहिम को उन्होंने उठाया, हाथ मुंह धुलाया, फिर दैवी पदार्थों से भरे हुए थाल उसके सम्मुख रख दिए। बोले -- मैं किसी का धान्य नहीं खाता, गुरु का ऐसा ही हुक्म है, तुम इस ले जाओ, मेरे काम के इनमें से एक भी नहीं है। उत्तर मिला -- किसी मनुष्य का सामान नहीं है, हम फरिश्ते हैं, खुदा के हुक्म से तुम्हारे लिए आये हैं, खुदा की दी हुई चीज़ को इंकार करना गुनाह है, इसे तुम्हें अवश्य ही ग्रहण करना चाहिए और खा के अपनी निर्बलता को दूर करना चाहिए। भूखों मर के शरीर को निर्बल बना के न तो भजन ही बनता है न किसी दूसरे काम में सफलता मिलती है। शरीर की रक्षा धर्म है। अब इब्राहिम भी इंकार नहीं कर सके। उस फकीर को भी खाने में शरीक किया। ऐसे व्यंजन उसने जिंदगी भर स्वप्न में भी नहीं चक्खे थे, बहुत खुश हुआ। उसने इब्राहिम से पूछा – तुम्हे फकीरी लिए कितना अर्सा हुआ? उसने कहा – मैं आज ही घर से निकला हूँ। फकीर यह सुनते ही क्रोध में भर गया और खुदा को कोसने लगा। इब्राहिम तो तृप्त होके निद्रा की गोद में चले गए। फकीर रात को भजन करते वक्त, खुदा से शिकायत करने लगा – तुम बड़े बेइंसाफ हो, तुम्हारे कायदे कुछ नहीं, जो जी में आया करते हो। मैं चालीस वर्ष से तुम्हारी बंदगी कर रहा हूँ, तुम्हारे लिए सब कुछ त्याग बन में पड़ा हूँ, मुझे हमेशा सूखी जौ की दो रोटियां और नमक के सिवाय कभी कोई चीज़ नहीं पहुंचाई और यह आदमी आज ही घर से निकल के फकीर हुआ है, भजन बंदगी भी कुछ नहीं करता, पड़ा-पड़ा सो रहा है, उसे तुमने इतने अमूल्य पदार्थ भेजा।
आवाज़ आई -- ए फकीर, तू फकीरी लेने से पहले क्या करता था?
फकीर ने कहा – मैं एक घसियारा था। घास बेच के सारे कुटुंब का गुजारा चलाया करता था।
फिर आकाशवाणी हुई --- उस समय भोजन में अधिकतर तुझे क्या मिला करता था? उत्तर दिया --- जौ की रोटियां और नमक।
अंतरिक्ष में फिर शब्द गूंजा – तेरे भाग्य में वही दो रोटियां हैं क्योंकि तू घसियारे से फकीर बना है और यह बादशाहत छोड़ के मेरे लिए निकला है। इसकी तक़दीर में ऐसे ही पदार्थ है, इसलिए मुझे पहुँचाना लाजिमी हुआ। तुझे पिछली किये हुए कर्मों का फल मैं दे रहा हूँ। इस समय जो कुछ कर रहा है उसका फल आगे चल के मिलेगा।
तपस्वनी माँ परमेश्वरी बाई
माँ परमेश्वरी बाई का जन्म एक अच्छे कायस्थ कुल में हुआ था। पितृकुल प्रदत्त उनका नाम था मालती दास। अपूर्व सुंदरी व लावण्यमयी मालती देवी का ब्याह कलकत्ते के एक अत्यंत सम्रध परिवार के एक सुयोग्य नवयुवक से हुआ। पति अत्यंत सभ्य, सुसंस्कृत थे और श्वसुर कुल में सुख सुविधाओं और संसाधनों के कोई कमी नहीं थी। अकस्मात दुर्भाग्य के काली आंधी से श्रीमती मालती का जीवन आच्छन हो उठा। कलकते में प्लेग फैला जिसमे उनके श्वसुर की मृत्यु हो गई। थोड़े दिनों बाद इसी बीमारी ने उनके पति को भी लील लिया। वे अकाल मृत्यु के ग्रास बने। सम्पति-जायदाद पर उनके चचेरे जेठ की नजर थी। रास्ते का कांटा था जायदाद का एकमात्र उतराधिकारी, मालती का दुधमुंहा बालक। धूर्त जेठ ने एक षड्यंत्र कर मालती के एक दासी को अपने साथ मिला मालती के नन्हे से बालक को विष दे मरवा दिया। अब मालती की स्थिति बिलकुल विक्षिप्तों सी हो गई। पूजाघर में राधा-माधव के चरणों पर लोट बिलखती हुई विनती करने लागी, ठाकुर! मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है जो तुम एक-एक कर मुझसे मेरा सहारा छीनते जा रहे हो। पर, अभी विपत्तियो का अंत कहाँ। शोक विह्वल मालती अभी इस शोक-संताप से उबर भी नहीं पाई थी कि उनके चचेरे जेठ का यह घृणास्पद प्रस्ताव रोज-रोज उनके पास आने लगा कि वे अपने सम्पति सहित खुद को उस पापाचारी के हाथ सुपुर्द कर दें। एक रात मालती अपने घर में राधा-माधव के विग्रह जिनकी पूजा वे रोज करती थी, के पास बैठ कर खूब रोई और रोते-रोते उन्हें नींद आ गई। नींद में उन्होंने एक स्वप्न देखा। उन्होंने देखा कि राधा-कृष्ण उनके सामने खड़े हो कर बड़े स्नेह से उनसे कह रहे है, “ भला तुम यहाँ रह ही क्यों रही हो, मेरे लीला-धाम वृन्दावन क्यों नहीं चली आती। वहां हमने तुम्हारे लिए स्थान रख छोड़ है। अपनी सारी चिंता व परेशानी हम पर छोड दो।”
मालती की नींद उचट गई, वे उठ बैठी। देखा तो वही नीरव सन्नाटा। भगवान की मूर्ति जैसी की तैसी मौन। पर मन में एक विश्वाश का उदय हुआ कि वे प्रभु ही मेरे मार्गदर्शक और सहायक है।
इसी घटना के कुछ दिनों के बाद जब वह एक रात सो रही थी, अचानक उनकी देह पर मिट्टी का एक ढेला आ गिरा। मालती चौंक कर उठ बैठीं। आखिर ढेला आया कहाँ से। बगल की गली में एक खिडकी खुलती थी, शायद वही से, परन्तु उनके मन में भय का संचार नहीं हुआ। वह उस खिडकी के पास जाकर खड़ी हुई। गली मे मालती की छत से सटे नीचे छत वाला एक मकान था, उसी मकान के छत के किनारे एक जटाजूटधारी बूढ़े साधु बाबा खड़े थे। अँधेरी रात में भी उनका शरीर प्रकाश से उदभासित हो रहा था। मालती को देखते ही वह साधु (जो पूर्व जन्म में इनके गुरु थे) बोले- “उस रात जो स्वप्न तुमने देखा था, वह असत्य नहीं पूर्ण सत्य था। तुम्हारे ऊपर प्रभु श्री नटवर नागर की कृपा दृष्टि है, फिर तुम्हे चिंता कि आवश्यकता क्या? तुम सब कुछ त्याग चली आओ वृंदावन प्रभु की शरण मे।”
मालती का पूरा शरीर एक अनपेक्षित और अनास्वादित आनंद से परिपूर्ण हो उठा। इस दिव्य दर्शन के बाद मालती के पास आगे सोचने-विचारने का कोई कारण नहीं रहा। उन्होंने एस्टेट के पुराने वकील श्री चौधरी को बुलाया और अपनी सारी सम्पति ट्रस्ट के नाम लिख दी, अपना स्त्री-धन सारे जेवर भी बेच सारे पैसे ट्रस्ट को ही सोंप दिये। पूर्णतया त्याग की मूर्ति बन वह वृन्दावन को तत्क्षण चल पड़ी। साथ था तो केवल श्री राधा-कृष्ण का चिंतन व उन पर अटूट विश्वास।
वृन्दावन पहुँचने पर जैसा कि नियत दैव योग था वही जटाजूटधारी साधु बाबा उन्हें मिले जिनके गोशाले में क्लांत और व्यथित मालती बेहोश होकर गिर पड़ी थी. वे थे उनके पूर्व व आगामी जीवन के गुरु महाराज पूज्य बाबा दामोदर दास जी जिनकी कुटिया थी वृन्दावन में कुंजवन मे और जिनके जीवन का परम धेय था श्री नटवर नागर कृष्ण और राधा रानी के प्रति अटूट भक्ति व साधना। यही माँ मालती को आश्रय मिला। दो स्नेही गुरु भाई भी मिले, श्री मिठूलाल और श्री नंददास जो बाबा दामोदर दास के प्रिय शिष्य थे।
बाबा दामोदरदास जी ने मालती देवी को वैष्णव मंत्र की दीक्षा दी तथा अपने शिष्यत्व में स्वीकार किया। उन्होंने उनका नया नामकरण किया कुंजदासी। यही कुंजदासी आगे चलकर हुई विहारवन की साधिका सिद्धा परमेश्वरी बाई ।
***************
No comments:
Post a Comment